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तीसरी सत्व-भावना में चेतनको उद्बोधन करते हुए कहा है:
""रे जीव साहस आदरो, मत थाओ दीन । सुख दुःख संपद आपदा, पूरव कर्म आधीन ॥ क्रोधादिक वसे रण समे, सह्या दुःख ते जो समता में सहे, तो तुझ खरो तेरे वैभव का मान कैसा !
रोगादि में धैर्य धारण करे |
अमान । मान ॥
" चक्री हरिवलं प्रतिहारी, तस विभव ते पिण काले संहर्या, तुझ धन स्यो हा हा हुं तो तूं फिरे, परियणनी चिंत नरकपड्यां कहो तुझने, कोण करे निचित ॥
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" रोगादिक दुख पूरव निज कृत
देह पर प्रीति कैसी !
अनेक | विवेक ॥
उपने, मन अरतिम धरेय । कर्मनी, ए अनुभव देवरे ॥
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पह. शरीर अशाश्वतो, खिण प्रीति किसी ते उपरे, जे
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में सीझंत । स्वारथवंत ॥
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विणसी जाय । काडि उपाय ॥
शिव सुख । दुख ॥
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፡ आगल पाछल चिह्न दिने, जे रोगादिकथी नवि रहे, क्रोधे अन्ते पिण पहने तज्यां, थाये 'तो जे छूटे आपथी, प तन विणसे ताहरै, नवि कोई जो ज्ञानादिक गुण तणौ, तुझ आवै
तुझनै स्यो
हाण |
झाण ॥
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"" भाव अयोगी करण रुचि, मुनिवर गुप्ति धरत । जो गुप्तिना रहि सकै, तो सुमते विचरंत ॥
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अष्ट-प्रवचन-माताकी सझाय में मुनि-जीवन का रहस्य विशद ढंग से खोला गया है । प्रारंभ में कहा गया है कि अंयोगी भाव के इच्छुक रुचि वाले मुनि मन, वचन, काया, इन तीनोंकी गुप्ति रखते हैं। मन को तत्व चिन्तन, वचन से मौन और काया से स्थिर रखते हैं । साधना में तल्लीन रहने से योगों का उपयोग बाहर नहीं हो पाता बल्कि गुप्त रहता है। पर वह अवस्था विरला ही उच्च साधक को थोड़े समय तक ही प्राप्त होती है अतः साधारणतया इन तीनों योगों की शुभ प्रवृत्ति में जोड़े जाते हैं । उनको प्रवृत्ति वर्तन में जो दोप उत्पन्न होता है उससे वे उपयोग विवेक पूर्वक बचे रहते हैं ।