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वचन बोले । आश्रवरूप वचन न बोले । भाषा पर्याप्ति प्राप्त हुई है उसका उपयोग स्वाध्याय, स्वरूप-बोधक, परोपदेश के लिए करे । जो वाक्य-शक्ति आश्रव मार्ग है उसे मुनि निर्जरा में परिणित कर दें । प्रभु गुण की स्तवना अपने स्वरूप को संभालने के लिये व अन्य-जीवों को प्रतिबोधित करने के लिए धर्मोपदेश करे । सूत्र बांचना वस्तु-स्वरूप इत्यादि अपने बोध के लिए करे । श्रीमद् कहेते हैं:
" योगजे आश्रव पद हतो, ते कों निर्जरा रूप रे। लोह थी कंचन मुनि करे, साध्यता साध्यचिद्रूपरे । अल्पहित परहित कारणे, आदेश पांच सिन्हाय रे । ते भणी अशन घसनादिका, आश्रय सर्व अववाय रे । जिनगुण स्तवन निज तत्वने, जोयवा करे अविरोध रे ॥
देशना भव्य प्रतिवोधवा, वायणकरण निज वोघरे ॥ " तीसरी समिति शुद्ध आहार ग्रहणरूप-एपणा समिति है । मूलतः आत्मा अनाहारी है। अतः उत्सर्ग मार्ग वही है । उसका अपवाद निर्दोष आहार-भिक्षा वृत्ति से लेना है। काया पुद्गल निर्मित है और यह आहार-भोजन रूप पुद्गल ग्रहण करती है अतः आहार देह धर्म है । आत्मा धर्म नहीं। तब आहार ग्रहण क्यों किया जाता ! इस प्रश्न का उत्तर श्रीमद् इस प्रकार देते हैं :
"इम पर त्यागी संवरी, न गहे पुद्गल खंध। साधक कारण राखवा, अशनादिक संबंध ॥ आत्म तत्त्व अनंतता जी, शान विना न जणाय । तेह प्रगट करवा भणी जी, श्रुति स्वाध्याय उपाय ॥ तेह जेह थी देह रहेजी आहारे बलवान । साध्य अधूरे हेतुनेजी, केम तजे गुणवान ॥ तनु अनुयायी वीर्यनोजी, वर्तन अशन संजोग । वृद्धयष्टि सम जाणिनेजी, अशनादिक उपभोग ॥
जो साधकता नवि अडेजी, तो न प्रहे आहार ।
. धाधक परिणती धारवाजी; अशनादिक उपचार ॥ " ' अर्थात्-आत्म तत्वका बोध ज्ञान द्वारा होता है। उसके प्रगटीकरण के लिए श्रुत का स्वाध्याय आवश्यक होता है । श्रुत-स्वाध्याय देह से और देह के लिए आहार की आवश्यकता है अतः जहांतक साधक पूर्ण नहीं हो जाता साधन हेतु को गुणवान छोड नहीं सकता। मुनिगण आहार देह को भाड़ा देने के लिए ही करते हैं। पुष्ट बनाने व स्वाद प्राप्ति के लिए नहीं। अतः जहां विना आहार लिए भी साधना में विन्न प्रतीत न हो तो मुनि आहार न करे । शारीरिक शक्ति की क्षीणता से साधनसिद्धि में बाधा पड़ती है इसके लिए ही आहार लिया जाता है। . भिक्षा के लिए जानेपर यदि संयोगवश निर्दोष भिक्षा न मिले तो मुनि को खेद नहीं करना