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युगमंघर-स्वामी के स्तवन में पर-परिणती के रंग से बचाने की प्रार्थना की गई है। ऋषभानन· स्तवन में "जब तक अपनी आत्म-संपदा न प्रगट हो जाय"-जगत गुरु-प्रभु की सेवा आवश्यक है। क्योंकि कार्य-पूर्ण जबतक न हो तबतक कारण को नहीं छोड़ा जाता । प्रमु मेरी सिद्धि के पुष्ट हेतु हैं। कारण के कार्य होता है अतः प्रमु तो स्वीकृत-कारण हैं। वज्रधर स्तवन में अपनी वर्तमान पतित दशा का चित्र प्रभु के सम्मुख बड़ी मार्मिक रीति से रखा गया है ।
चन्द्रानन-स्तवन में वर्तमान काल की विषमता व जीवों की हीन सत्त्वता का चित्रण सुन्दर ढंगसे किया है। नमिप्रभुके स्तवन में अपने अनादि भूल का घटस्फोट किया गया है कि मैं परभाव कर्ता, मोका तथा बंध, आश्रव का ग्राहक हो गया हूँ । जड़ में रचा हुआ हूँ। आम-धर्म को भूल रखा है । बंध आश्वको अपनाया व संवर निर्जग का त्याग कर दिया है। जड़ चल कर्म और शरीरको आमा मान लिया अर्थात् पूर्ण रूप से बहिराम बन गया। पर अब सुयोग से परमात्मा को देखने से मेगे अनादि की भ्रान्तियां मिट गई । प्रभु के समान ही अपनी सत्ता को जानकर उस स्वरूप के प्रगटीकरण की इच्छा हुई, यह अंतरात्मा की अवस्था है। जहां पर परिणति के प्रति सर्वथा निरीहपना हो जाता है। .१४ । देवदत्त-प्रभु के स्तवनमें भक्ति-भाव प्रगट करते हुए कवि-हृदय बोल उठता है:
"होचत जो तनु पांखडी यायत नाथ इजूर लाल रे।।
जो होती चित्त-आंखडी, देनत नित प्रभु-नूर लाल रे ॥" अन्तिम अजित वीर्यस्तवन में प्रभु-भक्ति के मुफल की चर्चा करते हुए श्रीमद देवचन्द्रजी कहते हैं कि:
"जिन-गुण-राग परागधी, वासित मुझ परिणाम | . तजशे दुष्ट विभावतारे, सरसै मातम कामरे ॥
जिन-भक्ति रत चित्तनेरे, चेयक रस गुण प्रेम रे ।
सेवक निज पद पामोरे, रसवेधित अय जेमरे ॥" अतीत चौबीसी के चतुर्थ स्तवन में प्राध्यामिक होरी का रूपक सुन्दर बना है। श्रटम स्तवन में वसंत ऋतु में फाग खेलने का भिन्न रूप से चित्रण है। १६ नमीगर ग्नयन में प्रभु के मुख का दर्शन कर आमा को अनादि मूल दूर हो यह इम्ला प्रगट की गई है तथा निज स्वरूप दशा जागी-उसका वर्णन है । १९ अनील जिन स्नवन में "प्रनुनी कुल नही अग्ने " मा अपना आमाको प्रमु के निमित्त से हो ना उठाना है नया अपना कार्य मिद कर देना है जमा कि:
" पर फारज करता नहीं रे, सेयक पार न देत । जे सेये तनमय घई रे, ते महे जिय संपत ॥ सेया-भक्ति भोगी नहीं रे, न करे. परनी सदाय । तुज गुण रंगी भननी रे, सहजे कारज थाय ॥ "