________________
धनलान हुए. श्रीमद, कहन है:
" माइस, पूर्णानन्द प्रगट करया अणी।
पुष्टायटयनम्प-मेय प्रमुनी नणी ।" मुनिमुमननाथ के ग्नयन में यही माघ इन शब्दों में किया है। " आनय आनम , काय-सिद्धिनार नच माधन जिनराज ।
प्रमु. दीट प्रसुदीठ कारन मचि ऊपने रे प्रगट धान्म-प्रमान |" २१ नमिनाथ ग्नयन में ऋषि ने श्रध्याम-वर्षा का रूपक अष्टुन ही मात्र पूर्ण बांया है।
२२. अरिष्टनमी-प्रमुग्नवन में आप कहते हैं कि गगी की संगनियं रागदशा बदनी है। प्रयु श्रीनगगी हैं, इसलिए उनमें प्रेम की जाने में पत्र में पार हो जाता है।
२३३ प्रा पाश्रनाथ के नवन में प्रधुने शुद्धना, एकना, नागनादि बाग माह-रिपु पर फैये विजय प्राप्त की-इसका सुन्दर विवचन है। अन्त में प्रभु की बंदन र गुणों को चित्त में समान हप ऋषि अपने को धन्य कनपुण्य जन्म-सफल हुआ, ऐसा मानना है।
अन्तिम बीर-प्रस के नयन में अपने अवगुणों पर चंद्र प्रकाश्य करते हुए प्रमुहाग अपने को नापने के लिए, प्रथम अनुरोध किया गया है। प्रभु का साया मजन, प्रयुके गुणों को पहचानन मेही होता है। अपनी आत्मा के समक्ष दान-नान चारित्र, श्रीयादि गुणों के महास सदी मत्र्य नीत्र कर्मा को जीनकर मोन पाटेना ।
'वीशी' इत्यादि पदों में श्रीमदन ननाव आमनन्त्र को परिष्याधिन कर दिया है। यहां सत्र उन अनुबनी के पदों की उन कर दना गंमत्र नहीं । श्रन: 2-५ उदाहरणों के हाग ही सहदय पाटक गन्तोष करें।
प्रथम मीमन्या-स्वामी के ग्नबन में प्रभुप बिननी बहुन सुन्दर दंग में की गई है । सुनने ही हृदय नाच लेगा । देखिए । श्रापकी अनोत्री बिननी । सुनियः
" थी नीमन्यर. जिनयर. ज्यामी ग्रीननही अवधारो, शुख-धर्म प्रगटयां जनमत्री, प्रगटे नेन अमागरे। में परिणामिक धर्म तुम्हारी ने यो अमची धर्म ।
श्रद्धा मानन ग्यण बियोगे, बायो निमात्र अधर्म । " निनांक कड़ी के गान लुय नी मानी अध्याय का माग रहस्य मिल जाता है:
" अशुद्ध, निमिन ए पंगाना, अता करना पर, नी।।
शुद्धनिमिन मे नचियन, कना कर घरनी ॥" मीमन्धर-प्रभु की मंया अवलम्बन व उपदेश ग्रहण करने के योग्य है क्योकि अच्छे निमित्ता को ग्रहण कर, संपार की मुटबों को छोडना ही मायन मार्ग है।