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मुविधि-जिन स्तवन में प्रमुदर्शन होनबाट छामका बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया है। यथाः
"दीठा मुविधि निणंद, समाधि बसे भयो हो लाल । मास्यो आत्म-स्वरुप अनादिनो विसयों। , सकल विभाष उपाधि थक्री मन अवसयों , सत्ता सायन मार्ग मणी ५ मंचों हो , दानादिक निनमात्र इवा ने परवशा " त निज मन्मुन्न भाव ग्रहीलही नुज दद्यारे ! मोहादिकनी धूलि अनादिनी उतर अमल अत्रण्ड अलिम, स्वभाव के सामरे रे। तत्व-रमण शुचि ज्यान भणी ने थाइरेरे ने समतारस घाम, स्वामि मुद्रा बर।। प्रमु मुद्राने योग प्रमु यमुता लन होलाला , इण तणे सायम्य स्वसंपनि ओलद्र हो। , बोलन्नना बहुमान महित नचि पण वय, ,
कत्रि अनुयायी बीर्य चरण धारा संच हो ।" " यह पूग लवन ही ऋत्रि के हृद्रय-ग्नुलसे निसृत अध्याल-प्रवाह है। नि: गाते ही हृदय आनन्द्र विमोर हो उठता है। पाठक त्रयं इसका रयात्राइन कर देने!! निम्नलिखित स्तवन में ऋवि अपनी अमिन्त्राधा मी कै सुन्दर दंग में व्यक्त करना है:
" प्रमु छो त्रिभुवन नाथ, दास हूँ ताहरो, करणानिधि अमिलाप, अछे ए मुझ नरो । यानम बन्नु स्वमात्र सदा मुक्त सामरी,
भासन-वासन पड चरण ज्याने चरी।" आगे के नवनों में श्रीमद दूसर ऋत्रियों की मान दीनना व्यक्त नहीं प्रभु के निमित्त से अपना आम-स्वन्स समझ न उसकी प्राप्ति में प्रवृत होने की ही प्रेग्णा ऋते है।
"प्रमु-प्रमुना मंमारठा, जाठा करतां गुणग्राम |
संबकमाघनता धरै निज संघर. परिणति घाम रे। प्रगट उच्यता व्यावतां निजतत्त्वना ध्याता श्राय तत्व रमण एकाग्रता पूर्णताये रट्ट समाय
प्रमु दीछे मुड सामरै परमातम पूर्णानंद ॥" बारहवें त्रामुषव्य प्रमुग्नुबन में उपयुक नल को बड़ी ही पटना में व्यक्त किया गया है:
" आप अफचा मंत्राथी छत्र.२, सेवक पूण-सिद्धि । निज धन न दिये पिण, आयिन लहेरे, अक्षय अक्षरसिद्धि । लिनवर-पूजासे निज पूलनार, प्रगट अन्त्रय शकि। परमानन्द चिलाखी अनुसंवर, "देवचन्द्र पद व्यक्ति ।