________________
૧૩
के दर्शन करती है तब उसे अपनी वीतराग दशा व अनन्त ज्ञान-दर्शन-चरित्रादि गुणों का ज्ञान होता
है और तद्रूप भक्त की आत्मा अपनी वास्तविक दशा को प्राप्त होती है ।
·
कार्य सिद्धि यदि अपने हाथ से ही हो तो फिर प्रभुको तारने आदि के लिए क्यों कहा जाता है ? इसका रहस्य श्रीमद अगले चरण में स्पष्ट करते हैं।
66
कारण पद कर्ता पिणेरे, करी आरोप अमेद । निज-पद अथ प्रभु थकीरे, कर्ता अनेक उमेद ॥
99
अर्थात् — प्रभु कारण हैं । उनमें कर्त्तापने का आरोप कार्यसिद्धिमें सहायक मानकर किया गया है और उसी कर्तापने के आरोप के कारण प्रभुसे भक्त याचक अनेक उम्मीदें व याचनाओं की मांग करता है।
प्रभु के दर्शनसे क्या लाभ मिला इसका उल्लेख अगले पदोंमें किया गया है । बाह्य पोदगलिक पदार्थों में सुख का जो भ्रम था वह टल गया और आत्मा के वास्तविक सुख, आनन्द का बोध हो गया । इससे ग्राहकता, स्वामित्वता, भोका भाव रमणता दानपरिणामादि बाह्मगुण, अव अन्तर्मुखी हो गये । इसलिए प्रभु को निर्यामक ( भव- समुद्र के तारक), माहण, वैध (भवरोग निवारक) गोप (पटूजीव रक्षक) और भाव धर्म दाता कहा जाता है ।
तीसरे स्तवन में प्रभु को अविसंवाद निमित्त होने से जगत जंतुओं के सुखकारक हैं । प्रभु मोक्ष-रूप कार्य के हेतु हैं । इस भावनासे बहुमान पूर्वक सेवा करनेसे भव्य-जीवों को मोक्ष मिलता है । उपादान कारण आत्मा है और पुष्ट अवलम्वनरूप प्रभु हैं । उनको सिद्धता हमारे लिये साधन रूप है अतःप्रभु-स्वरूप को जानकर उन्हें वंदन करने वाला उनकी शरण में रहनेवाला धन्य है ।
चौथे अभिनन्दन - स्तवन में प्रभु से रसरीति कैसे और कब होगी इस जिज्ञासा के उठाते हुए उत्तर में कहा गया है कि पौद्गलिक अनुभव के त्याग से हो प्रभुसे मिलने की प्रतीति होगी । प्रभुके गुणों की चर्चा आगे के पदों में की गई है ।
पंचम सुमतिनाथ के स्तवन में उनके आध्यात्मिक गुणोका वर्णन है । अन्तमें कहा गया है "माहरी शुद्ध सत्तातणी पूर्णता तेहना हेतु प्रभु तँहो साचो " यानी हे प्रभु । मेरी शुद्धताको पूर्णत | के कारण आप ही हैं ।
६ वें श्री पद्म-प्रभप्रभु के स्तवन में प्रभु के संयोग से आत्मा की संपदा प्रकट होने का कहा गया है। "तिम मुझ आतम संपदार, प्रगटे प्रभु संयोग। " पारसपत्थर के संयोग के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है उसी प्रकार प्रभु के गुण व्यक्त हैं। उनके गुणों के संयोग से हमारी अध्यात्म-दशा प्रगट होती है | आमसिद्धि में कारणभूत प्रभु का नाम निर्यामक सहश है ।
चन्द्र-प्रभप्रभु के रतवन में वंदन, नमन, अर्चन, एवं गुणग्राम को द्रव्य सेवा चहाने हुए भावसेवा से प्रभु-मय अभिन्न हो जाने को बतलाया है । आगे सेवा पर साननय घटाये गये हैं ।