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था। दीक्षित होने पर आपका नाम राजविमल रखा गया था, पर आपका वह नाम अधिक प्रसिद्ध नहीं हुआ । श्रीमद् ने ध्यानचतुष्पदी आदि की प्रशस्ति में यह नाम भी प्रयुक्त किया है। विद्याध्ययन आपका बहुत अच्छी तरह हुआ। देवविलास के अनुसार वेनातट में दीक्षागुरु राजसागरजी के दिये सरस्वतीमन्त्र की आपने साधना कर सरस्वती की प्रसन्नता प्राप्त की। द्रव्यनुयोग में आपकी विशेष गति थी।
संयोगवश अपने गुरुश्री के साथ सिन्ध की ओर विहार किया। जैसा कि ऊपर लिखा गया है उस समय मुलताण में मिट्ठमल भणसाली आदि आध्यात्मरसिक श्रावक रहते थे उनकी प्रेरणा से आपने आध्यात्मिक ग्रन्थो का अध्ययन-आध्यापन किया । आपकी सर्वप्रथम रचना ज्ञानार्णव का राजस्थानी पद्यानुवाद ध्यानदीपिकाचतुष्पदी के नाम से प्रकाशित है जिसकी प्रशस्ति में आपने लिखा है
" आध्यात्म श्रद्धानां घारी, जिहां वसे नरनारीजी,
परमिथ्यात्वना परिहारी, स्वपर विवेचन कारीनी ॥ निजगुण चरचा तिहाथी करता, मन अनुभव में घढताजी, स्थाद्वाद निजगुण अनुसरतां नित अधिको सुख धरतांजी ।। भणसाली मिहमल शाता, आतम-सूरज ध्याताजी,
तसु आग्रह चउपाई जोडी, सुणतां सुखनी कोडीजी ॥" इसकी परवर्ती रचना "द्रव्य-प्रकाश" है, जो हिन्दी सवैया, दोहा आदि में पड़ द्रव्य निरुपणार्थ सं० १७६७ धोकानेर में बनाया गया है। यह भी उपर्युक्त मिटमल आदि के लिये ही बनाया गया था-'आतम समाव मिट्ठमलका'।
द्रव्यानुयोग विषयक गध प्रन्धरत्न आगमसार की रचना मरोठ में विमलदासजी की पुत्री माइजी अभाईजी के लिये की गई थी।
सं० १७७७ में आपका विहार गुजरात की ओर समृद्धिशाली गुजरात की भून-पूर्व राजधानी जैनधर्म के केन्द्र स्थान पाटण नगर में पधारे । नगरसेठ तेजसी दोसी सहन्नकूट जिनालय बना रहे थे । प्रसंगवश "सहस्रकूट" जिनके नामों के सम्बन्ध में श्रीमद् देवचन्द्रजी के पूछने पर सेटने ज्ञानविमलसरिजी से नाम पूछने पर सूरिजी यता नहीं सके । अन्त में दोनों विद्वानों के जिनालय में 'सत्तर-भेदी' पूजा के समय उपस्थित होने पर, सुयोग देख, नगरसेठने फिर सूरिजो को पूछा। उनके अनुपलब्ध बतलाने पर श्रीमत् देवचन्द्रजीने शिष्य की ओर संकेत कर सहनकट जिन नामावलि का पत्र हाथ में थमा दिया । यह देख ज्ञानविमलसूरिजी अत्यन्त चमत हुए ओर आपकी वित गुरु परम्परादि की प्रशंसा की। पाटण में आपके ताविक-व्याख्यानों से जनता को असीम लाम हुआ।