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________________ कर्मयोग प्रधान हैं । जैन दर्शन में ज्ञान एवंम् क्रिया दोनों के सम्मिलित को मोक्षमार्ग माना है। इस दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव स्वभावरूप से परमात्मा है। उस अवस्था का तिरोभाव कर्मबंध के कारण हुआ है । कमबंध मिय्यात्व अविरति कपाय और योग से होता है और संयम और तप द्वारा कर्मनाश होता है। कर्मनाश ही मुक्ति है-यही जीव का चरम व. परम लक्ष्य है-साध्य है। भ० महावीर के पश्चात कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, योगीन्द्र शुभचन्द्रादि अनेक आचार्य आध्यात्म ग्रन्थ प्रणेता हो गये हैं, जिनके ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। आचार्य सिद्धर्पि ने रूपक के बहाने आत्मतत्त्व को नो विशद् स्वरूप चित्रित किया है वह अनुपम है। भा. उमास्वाति का प्रशमरति, हरिमद्रमुरि के योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय आदि ग्रन्थ मौलिक से हैं। आ० मुनिचन्द्रसूरि का याध्यात्मकल्पद्रुम भी अच्छा ग्रन्थ है । सतरहवीं शती के उतगढ़ में कवियर बनारसीदासनी के समयसार प्रन्य का चारों ओर अच्छा प्रभाव विस्तार हुआ। १८वीं शती में मुलताण में कई श्रावक आध्यात्म-रंग में रंगे हुए प्रतीत होते हैं। उनकी चर्चा का यही एक विषय था। उनकी आध्यात्मरसिकताको छाप मुलताण में चातुर्मास करने वाले यतियों पर पड़ती। मेरी धारणानुसार प्रस्तुत लेख में निन आध्यात्मतत्ववेचा का परिचय करवाया जा रहा है। उन पर भी उस वातावरण के प्रभावने अच्छा काम किया है। १८ वीं शती के प्रारम्भ में मरत योगीरान आनन्दघनजी की साधना मेडता में होना सर्वविदित है। उनकी चोवीशी एवम् पढ़ों से जैन समाज तो सुपरिचित हैं ही, जेनंतर विद्वान भी आपके प्रशंसक हैं | आनन्दधनजी की चोवीसी के बाद आध्यात्मतत्व गर्मित चोवीशी श्रीमद् देवचन्द्रजी की मानी जाती है। आपके समस्त ग्रन्थों की खोज कर आध्यात्म अन्य प्रणता योगी श्रीधुद्धिसागरसूरिनी ने श्रीमद देवचन्द्र नामक दो बड़ी बड़ी जिल्लों में आध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल से प्रकाशित करने का निश्चय किया था। तदनुसारप्र थम माग में श्रीमद् देवचन्द्रनी के यागममार, नयचक्रसार, फर्मग्रन्थ व पयोचरादि ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं और दूसरे भाग में ध्यानचतुष्पदी, द्रव्यप्रकाश, चोवीसी, बीसी, सम्झायादि पद्य रचनाएँ प्रकाशित हैं । ज्ञानसार टीकादि का माग प्रकाशिन नहीं हुआ, यद्यपि वे पहले संस्करण भी ठप ही चुके हैं। मुझे आपकी अप्रकाशित कई रचनायें प्राप्त हुई थी जिन्हें अतीत चौवीसी स्तवनादि के परिशिष्ट में प्रकाशित कर दीया गया है। अप्रकाशित में दण्डक वालावबोध की नकल इमार संग्रह में है। सप्त-स्मरण की प्रति कई वर्ष पूर्व देखी थी, पर जिस संग्रह में देखी वह विक्री हो इतस्ततः हो गयी। शांतरस नामक एक गद्य मापाकृति के कर्ता एक प्रति के अनुसार श्रीमद् ही है, पर अन्य प्रतियों में इसका सूचन नहीं होने से संदेहास्पद है। 1: श्रीमद् देवचन्द्रनी का जन्म वि० सम्बत् १७१६ में बीकानेर के निकटवर्ती किसी ग्राम में हुआ था.। लूणीया तुलसीदासजी की पानी धनवाई की कृधि से आपका जन्म हुआ था। १० वर्ष की आयु मखरतरगच्छीय बाचक्र राजसागरजी में आपन दीक्षा ग्रहण की | देवचन्द्र आपका जन्म नाम
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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