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आध्यात्मतत्त्ववेत्ता श्रीमद् देवचंद्रजी[ लेखक-श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा ]
जैन दर्शन के अनुसार विश्व ६ द्रव्योंका समूह है। इनमें से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय व आकाशस्तिकाय ये अरूपी आगम एवम् अनुमान प्रतीतिरूप है। काल औपचारिक द्रव्य माना गया है। शेष पुद्गलास्तिकाय व जीवास्तिकाय ये दो प्रतीतिमुलभ है । इनमें से पुद्गलास्तिकाय हो रूपी द्रव्य है, वाकी के सभी अरूपी हैं । मूलत : नड़ और चेतन दो में ही इन छहों द्रव्यों का समावेश हो जाता है । जीव के अतिरिक्त पांचो द्रव्य जड़ के अंतर्मुक्त होते हैं। जीव भी अनादि काल से पुद्गलों के साथ रहा हुआ है इससे इसकी दो अवस्थायें मानी गई हैं । मूलतः जो उसका स्वरूपधर्म है उसे स्वभावदशा और पौद्गलिक संभोगों से प्राप्त दशा को विभावदशा कहा गई है। वस्तु स्वरूप का गहरा चिन्तन करने पर मनीषियों ने आत्मा के स्वरूप का अनुभव किया और उसकी वर्तमान विभावदशा के कारणों की शोध कर स्वभावदशा की प्राप्ति के साधन हूंढ निकाले । जहां तक हमारी वृत्ति बाध्यमुखी रहती है वहां तक आत्मअनुभव ठीक से नहीं हो सकता। अतः उन्होंने बादशा पोद्गलिक पदार्थों व उनके संभोग से होने वाले जीव के रागद्वेपादि भावों से सम्बन्ध घटाते रह अंतर्मुखी होने पर जोर दिया है। उन्होंने अपने जीवन में जिस तत्वज्ञान की उपलब्धि चिरसाधना से की, जनता के हितार्थ प्रचारित किया |शरीर, इन्द्रिय व बाहरी पदार्थों से वृत्ति हटाकर आत्मा की शोध में लगना यही आध्यात्मिक भूमिका है।
आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम परमात्मा या सिद्धअवस्था है । साधारण जीव वहिरात्मा होते हैं उनका ध्यान धन, देह, गेह, कुटुम्ब परिवार आदि बाहरी पदार्थों में गुंथा रहता है। इसके पश्चात् जब आत्मा देहादि मिन आत्मा के स्वरूपप्राप्ति की ओर अग्रसर होता है तो उसे अन्तरामा कहा जाता है और साधना के द्वारा आत्मा की शुद् अवस्था प्राप्त कर ली जाती है तब परमात्मा कहा जाता है। जीवन के लिये परमात्मा स्वरूप ही लक्ष्य है। इस तत्वज्ञान का अनुभव व साक्षास्कार करने वाले अनेक आप्यात्मिक महापुरुप हो गये हैं। उन्होंने मिन्न भिन्न प्रकार व सापनों में से आत्मा की अनुभूति को और जीवों की रुचि व प्रकृतिभिन्नता को हृदयंगम फर विविध माग! को प्रचारित किया । लक्ष्य आत्मा की शुद्धावस्था-परमात्मा की प्राप्ति एक ही होने पर भी किसी ने भक्ति को प्रधानता दी, किसी ने योग को, किसी ने ज्ञान को। योग में भी हट्योग, राजयोग,