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परिजेदः १४ नियम नथी कारणके ते यथापरिणामे स्थापना ईशना गुणतत्वनुं चिंतवन करे; अथवा स्थानवर्ण अर्थनुं अवलंबन करे तथा पोताना दोषना प्रतिपद (गुण) चिंतन करे इत्यादि प्रतिविशिष्टमां जेनो विवेकोत्पत्ति निश्कारण होय ते ध्यान करे, प्रसंग वधारवे करीने सरयुं.
॥ए पाठमां देवसिकादिक प्रतिक्रमणमा नियत कायोत्सर्गादि कह्या पण चैत्यवंदनाना कायोत्सर्ग प्रतिक्रमणमां कह्या नही, तेथी विस्तारे चैत्यवंदना जिनगृ. हमांज करवी सिह थाय ; पण प्रतिक्रमणमां करवी सिथती नथी ॥ तथा वली इहां कोई कहेशे जे प्रति. क्रमणगर्नहेतुमां तो विस्तारे देववंदन लखीने प्रतिक्रमण विधि सखे तो प्रतिक्रमणमां पण विस्तारे देववंदना करवी सिझ थइ, एनी उत्तर एबे के पूर्वाचार्योना करेला गर्नहेतु मां तो विस्तारे देववंदना लखी नथी अने आ धुनिकगर्नहेतु गश्ना जुदा २ तेमां केटलाकमां तो सामान्य प्रकारे चैत्यवंदना लखी ,ने केटलाकमां जिनगृहमा विस्तारे देववंदन करी प्रतिक्रमण करई, ते माटे प्रसंग प्राप्त विस्तारे चैत्यवंदना विधिए लखी संनवे ॥ जेम"जलं वस्त्रगालितमेव पेयं नागालितमपि"एटले जल गलिने पीवा योग्य ने पण अणगलेखन पीq ए वाक्यमां विशेषण विधि निषेध्यो विशेषणमुपसंक्राम ए न्यायना