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________________ चतुर्थस्तुति निर्णयशंको-छारः ५०५ सम्यक्प्रकारेण जिननाथवंदनं करोति देववंदनं करोति ततः जघन्यतः षोडशश्लोकमानं जघन्य तोपि स्वाध्यायं करोतीति गाथार्थः पोडश श्लोकानाह धम्मोमंगलमुक्किठं इत्यादि पंच गाथामयं प्रथममध्ययनं तथैकादशगाथामयं कहन्नकुद्यासामन्नमित्यादि द्वितीयमध्ययनं एवं षोडश श्लोकमान जघन्यतः स्वाध्यायं करोतीत्यर्थः ॥ ३४ ॥ ए पाठमां नोजन करवाना समयमां देववंदन करीने सझाय करवी कही ते देववंदना पूर्वाचार्यांना ग्रंथोमां जघन्योत्कृष्ट कही, तेम स्वगीय परगतीय सर्व साधुसमुदायमां वर्त्तमानकालमां पण करे बे, पण विस्तारे वंदना करता नथी; तेथी “ तिन्निथुइयो ” तथा “चनरोथुइन" इत्यादि वाक्य ग्रंथोमां होय तो विस्तारे देववंदन ग्रहण थाय, पण " देवेवंद" इत्यादि सामान्य वचनथी एकांते विस्तारे ग्रहण न थाय ॥ पूर्वपचः श्री मडपाध्याय श्री यशोविजयगणिजीये प्रतिक्रमण हेतुगर्जितविधि लखी हे तिसका पाठ लिखते है | पढमहिगारे वंड नावजि सरुरे ॥ बीजेदवजिणंद त्रीजेरे, त्रीजेरे इगचेश्यठवणा जिणोरे ॥ १ ॥ चोथेनामजिनतिहुयण उवणाजिनानमुंरे पंचमेतमवंडरे वंडरे विहरमानजिन केवलीरे ॥ २ ॥ सत्तमयधिकारेसुयनाणंवंदियेरे मीथुसि छाणनवमे रे नवमेरे इति विवीरनीरे ॥ ३ ॥ दसमेन जयंतेथुइ
SR No.010841
Book TitleChaturth Stuti Nirnay Shankoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMarudhar Malav ane Gurjar Deshna Sadharmik Sangh
PublisherMarudhar Malav ane Gurjar Deshna Sadharmik Sangh
Publication Year1890
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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