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परिजेदः १४ ले केमके जेटला ग्रंथोनी सादिआत्मारामजीए दीधी ले ते ग्रंथोसहित बमणा त्रमणा ग्रंथोनी सादि अमो लखी पाव्या बीए, तेमां को शास्त्रोक्त विधिमां "देवेवंद" कोश्मा “अरिहंतचेश्याणं" इत्यादि अने कोइकमां “सक्कबयाई" वली को ठेकाणे "शक्रस्तवः पूर्णाचैत्यवंदना” अने बहु शास्त्रोमां “ जिमुणिवंदण" इत्यादि सामान्य नामथी चैत्यवंदना करवी कही , ते प्रतिक्रमणना आयंतनी जघन्योत्कृष्ट चैत्यवंदना सामान्यथी करवी कहीने, तेमां सर्व प्राचार्योनो एक मत ; पणको ठेकाणे विस्तारथी च्यार थुनीकरवीकही नथी. इहां कोई कहेशे के अावश्यकहवृत्तिमा राप्रतिकमयाना अंतमां वईमान त्रण थुइ कह्या पली "देवेवंद" एवो पाठ तेथी विस्तारे वंदन करवं सूचन थाय ने एम कहे तेनी न्यूनताबुझिटालवाने ए उत्तर डे के “दे. वेवंद" ए साधारण वचनथी विस्तारे देववंदन कडं ग्रहण न थाय, केमके सुविहित श्री देवसूरिजीकृत यतिदिनचर्यामां जघन्यउत्कष्ट चैत्यवंदनाने देववंदना कहीले.
॥ते पाठः ॥ मुचश्नपाणं सम्मंजिनाहवंदणं कुण सोलससिलोगमाएं जहन्नकुणइसशायं ॥३॥ व्याख्या॥शिरो ललाटं नूमि प्रमाय॑ ततो नक्तसंनृतज लनृतपात्रकाणि च तस्यां नूमौ मुक्का स्वस्थचित्तः सन्