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५३० परिजेदः १३ मस्कार एकार्थ बे, ते जैन ग्रंथोमां पांच प्रकारना कह्या डे १ मत्सर, श्न य, ३ स्नेह, ४ प्रजुता, ५ जक्ति ॥ ए पांच प्रणाममांथी प्रथमना च्यार नमस्कार तो सम्यग् दृष्टि मिथ्यादृष्टी बेसने प्राये संसार हेतुए करवां संनवे, ने स्नेह प्रजता ने नक्ति एत्रण नमस्कार प्राये सम्यग दृष्टीने धर्म हेतुएज करवा संजवे; तेमां पांचमो वंदनप्रत्यायरूप नक्ति नमस्कार तो सर्वविरती प्रमुखनेज सं. नवे, ने प्रणाम प्रत्ययिनक्ति नमस्कार देशविरती अवि. रती सम्यग् दृष्टीने परस्पर करवो संनवे, तेथी पूर्वोक्त स्तुति स्तोत्र रूप चोथी थुश्मां समदृष्टी देवतानने आश्रि नमस्कार शब्द प्राचार्योए वापस्याडे, ते सर्वे प्रणामरूपे जाणवा; तथा श्री जवाहुस्वामीजी चनदपूर्वधरकृत प्रतिष्ठा कल्प तथा श्री हरिनसूरिजीकृत प्रतिष्ठा कल्प तथा श्री स्यामाचार्यजी प्रमुख कृत प्रतिष्ठाकल्पोमां नमः शब्द तथा स्वाहा शब्द पूजा वाची कह्या बे, तेथी पूर्वोक्त चोथी थुश्यो पूजा प्रतिष्ठादि कारणेज कहेवी संनव थायजे. इहां कोश्यात्मारामजी आनंदविजयजीसरखा कहेशे के चतुर्थ स्तुति पूर्वे तो कारणे करता, पण संप्रति केटलाक कालथी परंपराए विना कारणे करता याव्या तेम करवी जोइए, तेने कहीये के, हे नइ! पूर्वे जेम कारणे करता तेम संप्रति पण केटलाक कालथी परंपराए कारणेज क