________________
१७४
परिच्छेदः ७ जांणपणाथी मानवामें भावी होय तोत्रण करणत्रण योगथी वोसरावी पूर्वधरोना वचन ऊपर श्र-झा राखवी जोइए केमके एकतो जैनलिंगनो विरोधी बीजो श्रीश@जय प्रमुख तीर्थनो विरोधी त्रीजो जैनशास्त्रनो विरोधी चोथो चतुर्विध श्रीसंघनो विरोधी पांचमो पूर्वाचार्य समाचारिनो विरोधी इत्यादि विरोध करवा वालो किवारे पण संसारसमुद्रथी तरे नही!!! जैनलिंगनो विरोधी एवीरीते थाय के श्रीवीरशासनना साधवोंने श्रीजैनशास्त्र में सपेत मानोपेत जीर्णप्राय कपमां धारणकरवां कह्यांजे ने पीला प्रमुख कपमां धारण करवा वालाने महाप्रनाविक स्थिरापद्रगढकमंझन प्रा. चार्य श्रीवादिवेताल शांतिसूरिजीए उत्तराध्ययननी "बहदत्तिमां विम्बक" एटलेनेष विगोववा वाला थादिशब्द नांडचेष्टाना करवावाला कह्याने
ते पाठः ॥ अत्र च द्वितीयं द्वारं लिंगत्ति लिंग्यते गम्यते अनेनायं व्रतीति लिंगं वर्षाकल्पादि रूपो वेषस्तदधिकत्याय "अचेल" इत्यादि प्राग्वदाख्यातमेव नवरं "महामुणित्ति” महामुने पति च "महायसत्ति" महायशसा लिंगे द्विविधे अचेलकतया विविधवस्त्रधारकतया च द्विनेद इति सूत्रत्रयार्थः ॥