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चतुर्थस्तुति निर्णयशंकोद्धारः
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प्रमुखमा नमस्कारप्रमुख करवुं तथा वीरना शासनमां पीला प्रमुख वस्त्रेकरी लिंगभेद करवो इत्यादिक सावद्य क्रियानां कथन करवावालां सिद्धांत नथी. तेथी पूर्वोक्त शुभअनुष्टाननु कथन करवावालां सिद्धांत जाणवा. ते मूलसिद्धांत द्वादशांगी, अढारहजारादि पदप्रमाण विछेदगयां थकां संप्रतिकाले पूर्वश्रुतसमुद्रनी अपेक्षाए बिंदुमात्र रह्यांबे. ते सूत्रोथी अनुष्टाननो विधि, सामान्यपणाथी सर्वप्रकारे जाएयो न जाय, तेथी जंबप्रजवादिकनी आचरणाए श्रावेली शुनप्रनष्टाननी प्राचरणा, ते गीतार्थोए, पंचांगीमां तथा पंचांगी नुसारे प्रकरणादिकमां, कहेली बे. तेथी सर्वकर्त्तव्यनो परमार्थ जाल्यो जायडे. तेथी तेज याचरणानु स्पष्टपणु आचार्य प्रागली गाथा में देखा मेले.
बहुश्रुतोने क्रमकरीने जे प्राप्तथई श्राचरणा ते याचरणा, सूचना विरहमें सर्व अनुष्टानविधिने धारण करेले, जेम दीपकना प्रकाशथी जली दृष्टिवाला पुरुपोने, कोइक घटादिक वस्तु देखीने ते वस्तु दीपकना अस्तथया पढी पण स्वरूपथी भूजाती नथी. तेमज श्रागमरूप दीपकनो अस्तथये पण, यागमोक्त वस्तु, प्राचरणाथी सम्यग्दृष्टि पुरुषो, याचार्योंनी परंपराथी जांबे. तेनु नाम जीत कहे. ॥२३॥ अवतरण ॥