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APPENDIX II.
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रक्षण जगत की जग चक्षन वक्षन वसत ॥ १ ॥ यथा स्तुति कवित्त ॥ मीन गति लीन जल वीन मैं महा प्रवीन वसि के वसीन जगदीन वं जानी है। कमला करन सुष दारिद हरन दुष जाको हाइ सनमुष सेा दिनेस वानी हैं | विद्या रस सानी अघहानी रूप रानी मानी तिहूं लोक मानी हंस वाहनों सयानी हैं वेद गुन ग्यानी कवि दक्षन सुजानी वानी नौ निधि निधानी अष्ट सिद्धि रजवानी हैं ॥ २ ॥ अथ गनेश की स्तुति ॥ मन हरन छंद ॥ वत्तीसा कवित्त | संपति वसावन विपत्ति को नसावन हैं सावन सषान हर भुव की अचल ध्रुव । भागन जो गजमुख जाको हाइ सनुमुष ताकों ता विरुष दुष दारिद विमुष हुव । गिरिजा तनय ज्ञान गुनको निलय चय बुद्धि को वलय सिद्धि रिद्धि की रुचिर भुव । सुष को सुरेस तम दुष की दिनेश वेस दक्षन गनेस जग रक्षन महेस सुव ॥ ३ ॥ .........'' ग्रंथ कर वा कारन वषान" | छप्पै ॥ दक्षन कवि चित भाउ कावि भाषा प्रतिभायैा । उक्ति जुक्ति से मुक्ति माल यह ग्रंथ बनाया | पढ़े जो चित दै याहि रसिक ज्ञान जु काई । तासां मुक्ति प्रसीस भीप माँगों दुष राई || सुन ज्याँ निदान है समदना इहि झूठे संसार करें । तिहिँ है। ज्यों में या ग्रंथ को निज सुव निज तारक ॥ ११ ॥ नांउ ठांउ वंस कवि की वर्तनं ॥ छष्ये || भाषा कावि रसाल तामे दक्षन पद पाया । पारसी कावि सुइस सुभग वालिह पढ़ लायै ॥ पढ़ी में ग्रंथ अनग्ग पारसी और प (र)बी । पूरव पछिम उत्तर दक्षिन देष्या में सुरखो || अहमदुल्लाह निज नाम है वासी बहरियाबाद की । सुभ वंस महे मारूफ करीपद जयादि को ॥ १२ ॥ संवत हिजरी और नाम ग्रंथ को वर्नन ॥ छप्पै ॥ ग्यारह से चे तीस हतो संवत जावीत्यों । दक्ष मदीने नगर डगर महमद जा जी ॥ चातिस ए के अंत ग्रंथ में साधि बनायौ । मास हता जीकाद जा में वह रस वरसाया || सुभ दक्षन विलास इहि ग्रंथ का नाम धरयों मैं प्रीति करि । अव च मै मीत असीस दै भाषा रसरंग जीत कर ॥ १३ ॥ अथ नवरस नाम वनं || छप्पै || करुना रौद्ररु वीर हाम वोभस वषानों में सिंगार ग्रह सांति सु अदभुत ना रस जानों | उत्तम रस सिंगार भेद यह वरनि कहीं अब । दंपति प्रीति सुरोति ताहि सिंगार कहत सब || पुनि और रसन के भेद जे कहीं ग्रंथ के अंत ते । कछू चूक जो परो हाइ कहं छिमा करें कविराज जे ॥ १४ ॥
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End. -कृष्ण की समरस सषी वचन सषी प्रति ॥ कवित्त ॥ तीनों लोक चल देष प्रेमा अविचल देषि लोनों ग्रवरेष एक प्रेम राधा प्यारी को । प्रेम की सुभर मेरु सुष ही उठाइ कर क्यों न लागै फूल वूल गिर गिरधारी की ॥ वांगे सा छुट्यो नेह कूटे साथी लूटा गेह पूठी मति छूटी देह तजि गति सारी को । जल के चरित्र भूले जल चर विचित्र भूले परि अरु मित्र भूले दक्षन मुरारी के ॥ ६१० ॥ सुद्ध स ंत रस ॥ कवित्त ॥ तात के प्रथम पीठ पालि सुभ कोनी डीठि मात के उदर ईठ राज्यों पाछे भाई हैं । सुवन सुधारों जठराग्नि तैं उवास