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APPENDIX III.
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तब श्री प्राचार्य जो महाप्रभू प्रसन्न होय के कहे सेा लक्षण कहत हैं सेा जोवन की बुद्धि निमित्त प्रथम तो अन्यापन करनों पाश्रम एक श्री नाथ जी को ही राखनों तातें सकल कामना सिद्ध होत है यह लौकिक और अलौकिक हूं यह जांनि के ग्राश्रय श्री जी बिना और कोन को न जानें काहे ते यह संसारी रूपी वृक्ष हैं पारु फूल याक होत हे फल देय एक तो सुख दुसरो दुःख ये दोऊ ई फल याको लगत है और शाखा या वृक्ष की अनेक हैं तिनको शाखांन की तरंग कहियत हैं।
End.-अब सप्तदशमो लक्षण कहते हैं । जो वैष्णव को जोग्य है जो अपना मन स्थिर राखनों और बुद्धि स्थिर राषनी काहू बात में पातुर्ता न करनों सेवा में चित्त स्थिरता करत में मनको चंचलता न धरनी अरु सेवा करत में मन को श्री जी के चरन में राखनों सेवा करत काहू सेा दुर्बचन न कहनो सेवा करत अन्यथा न भावनों सेवा करत संसार व्यवहार मन में न राखनों या भांति वैष्णव का योग्य है जो अपुनो चित्त स्थिर राखै तो (से)वा करनी सफल है यह जाननों वहुरि श्री महाप्रभु जी कल्यांन भट्ट से बोले जो वैष्णव होय के मन को डिगावे नाही।
Subject. -वैष्णवों के लक्षण । महाप्रभु जो और कल्याण भट्ट का वार्तालाप। ___No. 105. Vaithaka Charitra. Substance-Country-made paper. Leavog--109. Sizo-121 x 64 inches. Linos per page-26, Extent-3,500 Slokas. Appearanoe-Old. Charaoter-Nagari. Place of Deposit-Sri Devaki Nau. danācbārya Pustakālaya, Kāmabana, Bharatapur State.
Beginning.-श्री कृष्णाय नमः ॥ श्री गोपीजनवल्लभाय नमः ॥ अर्थ श्री प्राचार्य जी महाप्रभून को बेठक चारासी भूमंडल में हें सा तहां तहां जो प्रलो. किक चरित्र श्री प्राचार्य जी महाप्रभू किये हे सा लिख्यते ॥ जहां जहां श्री भागवत को पारायण कीऐ हे ॥ सा तहां तहां बेठक प्रसिद्ध भई हैं। सा चारासी प्रकार की भक्ति आपने प्रगट करो हे ॥ सा चौरासी बैष्णवन के हृदय में आपने स्थापन करी हे ॥ इक्यासी प्रकार की सगुन भक्ति ॥ ौर विधि प्रकार की निर्गन भक्ति प्रेम आसक्ति व्यसन के भेद करि के याही ते चौरामा वैष्णव मुख्य भक्ति के अधिकारी भये ॥ अब प्रथम श्री गोकुल में श्री आचार्य जी महाप्रभून की तीनि बेठक हे ॥ तामें मुख्य गोबिंद घाट के ऊपर ब्रह्म छोकर के नीचे प्रथम श्री आचार्य जी महाप्रभू श्री गोकुल पधारे सा छोकर के नीचे आई विराजे ॥ तब दामोदर दास जो का पाग्या काया।