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APPENDIX III.
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Beginning.-अथ श्री ठाकुर जी की घोडी लिख्यते ॥ एक नव रंग बनो हे बछेरी ॥ हरि बरजोगे बे ॥ वांके कौतिक देखन पाये ॥ सुरि नर लोग वे ॥ सुरि लोग कौतिग चपल चंचल ॥ तेज रंग तुरंगिनी ॥ चलति चंचल अधिक धावन पावनि वनिकि संगिनी ॥ अति वेगि गरुड समानि उतिम जो कहु सा थोड़ी यां ॥ श्री श्याम सुंदर नवल दुल्हे ॥ जोगि नव रंग घोडोयो । हरि जोगि नव वा रंग घोडी या ॥१॥ वाके जीन जडी मलाल र लटके गे मोतो बे ॥ नाना विधि रंतन जग मगे। वरि कोटि चंद्र रवि जाती बे॥ रबि जोति जगमग चले नांचति ॥ पावनि तनमन साईयां ॥ लोक पालि किरोट लोचन पउचकि पगु भागे धरयो। वसुदेव नंदन चले व्याहन ॥ भीमराज किसारी पा श्री स्यामसुंदर नव दुल्हे ॥ जागि नव रंग घोडी या हरि जोगि नवरंग घोडोयां ॥२॥
अपूर्ण Subject.-श्री कृष्ण की घोड़ो का वर्णन । _No. 101. Tiki. Sakhi Bihārina Dasaji ki. SubstanceCountry-made paper. Leaves-136. Size-101 x 6 inches. Lines per page-13. Extent-4,972 Slokas. AppearanceNow. Character-Nāgari, Date of Manuscript-Samvats 1963 or A. D. 1896. Place of Deposit-Radha Chandraji Vaidyaa, Bado Chaube, Mathura. ___Beginning.-न जाइ ३५४ ॥ काउ एक की एगिड़ार विर्षे उतपन होय है वा विष ही की वह खायौ करै है जो मिश्री की गंध वाकै कर्मा जाय तो वा गंध के सूंघत ही वह मर जाय है और जीवन कों मिश्री स्वाद लगै है विस सो पारन की मृतु होत है और वा कीड़ा को प्रकृत और जोवन के विपरीत है जो विष कं खायें जीवै और मिश्री की गंध सा मरै याका कारण महाराज बतावे हैं जाको जा वस्तु सा हित हैं वही वाको हिताय है पाछी लगै है वाके बिना 'या नहीं रह्यौ जाय है औरन के ले जो विष है सा वा कोड़ा को अमृत प्रानन
को जिवामन हारी जोवन मूर है और जो मिश्री औरन को प्रिय रोचक अमृत प्राय सेा वाकी विष समांन और जाते वह कोड़ा न देषौ हाय सा अफीम के संखिया के पानवारे मनुष्यन को देख ले कि कितनी कितनी मात्रा अभ्यास करत करत खाय जात हैं और बिना वाके खायें व्याकुल मृतक प्राय हैंोन लगे है औरजाको वाकं खान को अभ्यास नहीं सा एक रत्ती खायें ते मरन लमै है याही भांति काऊ उपासना काहू को अछी लगै है कोउ नहों सुहाय है
End.-बिहारी जू के अभिषेक को कोनों मंगल चार ॥ अघहन शुक्ला पंचमी विपुल किया त्योहार ॥ ६५१ ॥ विहारीदास विहार की सीवां अवधि
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