________________
440
APPENDIX III.
जंजाल दुष टारि मम काज सब सारि रे वीर हनुमान ॥ २ ॥ कुदि के समुद्र धाय कपुरा जारि दई रास अनेक मारे कहां लों करों वषान ॥ पैठि के पताल महारावन के प्रान हते गिरिकों उठाय दया लछमन को प्राण दान रावण की मारि के भिया के दुष टारे सबै प्रवल प्रचंड बल गावे वेद रु पुरान ॥ राम जू के कारिज सुधारे तुम जैसे तैसें मेरिए सहाय अब को वीर हनुमान || ३ || जा चरनन के ध्यान तें संकट कटत अपार ॥ सा मेरे उरमें वना निसि दिन पवन कुमार ॥ ४ ॥
Eud. -तन और धन ह मन दोत है पर कोजत है हित सुछ तथा ॥ मन मोहि सुजान बिमारत हो वलि नागर नेह की रीति न या । पर पीर न जानत हो निरदै कहता कीजिये प्यारे दया ॥ कितहु रहिये प्रति ग्रानंद सेा हमकों चहिये निति मीत मया ॥
पूर्ण Subject. - विविध विषयों के कवित्त ।
No. 35. Kavitta Phutakara by several authors. Substance—Country-made paper. Size-8 X 6 inches. Appearance-Old. Charactor—Nāgari. Placo of DepositBābū Purushottama Dasa, Visrama Ghața, Mathura.
Beginning.—श्री ॥ कवित्त फुटकर ॥ दृजे मास शरद रितु पड़वा सुदी की जान पूजा करि गिरि की इन्द्र मान मारे हैं | माजी सुख पानकी विराजत हैं द्वारकेश घांसा या निसान आग गज मतिवारे हैं | घाड़न कतार ग्वाल बाल सब साहें लार पचरंग चीरा शोग छड़ा कर धारे हैं | दोन रखवारे काज भग्तन समारे भारे चार भुजवारे सा पचारे नाथ द्वार हैं ॥ २ ॥ पूछे नंद -यसुधा खुशी है कृष्ण उद्धव सां बालत वचन नीर नेनन बहाना गात ॥ जवत पधारे कान घोर ना धरत प्रान भूले सब खान पान अंग जो सुखानो पात ॥ कारी अरु घूमर जं गया मन मान की त्रन नहिं खात नित होन डकरानी प्रात ॥ ग्रामै अब आये रटना जिय लागो रहे हेरत हो हरत म मा मन हिरानो जात ॥ कोकला कलापो कू वागन में ठोर ठार मारन की सार सुन जिय अकुलाना जात ॥ कारी घन घटा तापं छटा विज्जू हू की पड़े देखत ही कढ़े प्रान अंग धर थरानो जात विरह विथा की पोर वीर ना सहन होत दिन दिन छीजे अंग जावन गानो जात || पिय परदेश से न आये रितु पावस में हरत हो हेरत सु मा मन हिरानो जात ॥
End. - डारेगी अवीर चाचा चंदन तिहारे शीश रंग भरि केशर को पिचका - तन मारेगी | मारेगी गुलचा गुपाल गाल तरे वह धरन पछारि ताहि मनकी