________________
APPENDIX II.
369
End.-जनमेजय यज्ञ कथा वर्णन राग विलावन्न हरि हरि हरि हरि सुमिरन करी हरि चरनारविंद उर धरो जनमेजय जब पाया गज एक बार निज सभा बिराज पिता बैर मन मांहि विचागे । विप्रन सा यो कह्या उचारी मोका तुम अव जाप करावहु तछक कुटुम समेत जरावहु विनि मप्त कुल्ली जब जारी तव राजा तिन सो उच्चारी तछक कुन समेत तुम जारी गयो इंद्र निज सग्न उवाग्यो नृप कहीं इंद्र सहित तहि जारी विप्रनिहु यह मता विचारी प्रान्तीक तेहि अवसर आयौ गजा सा यह वचन मनायो कारन कग्नहार भगवान तछक डमनहार मति जानि बिनु हरि प्राज्ञा जुलै न पात कौन मकै काहु संतापि हरि ज्यों चाहै त्योंही हाइ नृप यामे संदेह न कोइ ___के मन यह निहचै आयो यज्ञ छाडि हरिपद चिंत लायो सूत सौनकनि कहि ममुझाया। सर दास त्याही गुन गायो १७४५ इति श्री भागवते महा पृराणे सूरदास कृता द्वादश स्कंध संम्पूर्णम् समाप्तं मुभमस्तु ।
___Subject.-सूरदास कृत भागवत । यह प्रति खण्डित है। पूर्व के २५६ पृष्ठों का पता है ही नहीं। पृ. २५६ से अंश दशम स्कंध का है और अन्त में द्वादश की समाप्ति है।
No. 186 (6). Sūra Sāgara by Sūra Dasa. Substance - Country-mado paper. Leaves —436. Size--- 10%" x 7". Lines per page-22. Extent-About 21,000 Slokas. Appearance-Very old. Character-Nagari. Date of Mauuscript-Samvat 1798 or A. D. 1741. Place of Deposit -- Thākura Rāna Pratāpa Sinnla, Village Barauli, Post Office Pahadi, Bharatapur State.
Beginning.-ॐनमा भगवते वासुदेवाय ॥ ऊं राग बिलावल ॥ ऊंचरण कमन बंदा हरि गाई ॥ जाकी कृपा पंगु गिरि लंध्धै आंधे का सब कछु दरसाई ॥ वहरा मुनै मक पुनि बालै रंक चलै सिर छत्र ढराई ॥ सूरदास स्वामी करुणामय बार बार बंदा तिहि पाई ॥ १ ॥ राग कान्हड़ा ॥ भक्त अंग ॥ अविगत गति कछ कहत न पावै ।। ज्यों गंगे मीठे फल को रस अंतर गति ही भावै ।। परम स्वाद सबही जु निरंतर अमित ताष उपजावै मन बानो को अगम अगोचर सा जानै जो पावै ॥ रूप रेष गुन जात जुगति बिनु निरालंब मन चकित धावै ॥ सब विधि अगम बिचारहि ताते सूर सगुन लीला पद गावै ॥२॥ भक्तवत्सल अंग राग मारू ॥ वासुदेव की बड़ी बड़ाई। जगतपिता जगदीस जगत गुरु अपने भक्त की सहत ढिठाई । भृगु को चरन आनि उर अंतर बोले बचन सकल सुखदाई ॥ शिव विरंचि मारन को धाप सा गति काहू देव न पाई ।। बिन बदले उपकार