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APPENDIX II.
सहस सुरसिकन को कृपा उमगै अविचल प्रेम ॥ ३१ ॥ इति प्रेमचन्द्रिका समाप्तम् ॥ प्रिय बोलन चितवनि चलनि नवनि ठवनि मुसक्यान ॥ रसिकन मन मजन करन जग विषयन अघषान ॥ १॥ नाम रूप रस धाम येक लीला इष्ट जो एक ॥ भक्त वचन श्रवनन मनन सीयराम को टेक ॥ २॥ जे अनन्य है येक व्रत सीयराम को साई ॥ वोधन तिनके चरन तर सरन परसो दिढ साइ ॥ ३॥ इति माघ वदी ॥ ३॥ संवत् १९३३ रामप्रियाशरण लिष्यते ॥
Subject.-वन्दनापृष्ठ १ भक्तापराध, भजनविधि । ,, २ विधि विवेक । ,, ३ प्रेमपरत्व, प्रेमप्रताप । ,, ४ प्रेमशैथिल्य, प्रेमदशा। ., ५ प्रेमस्वरूप, प्रेमसाधन । ,, ६ प्रेमसाधक, प्रेमऐश्वर्य । ,, ७ प्रेमसिञ्चननिष्ठा आदि वर्णन ।
No. 160. Pūjā Vilāsa by Rasika Dēva. Substance Country-made paper. Leaves-22. Size-7 inches x 6 inches. Lines per page-8. Extent-220 Slokas. Appearance-Old. Character-Nagari. Date of Manuscript-Samvat 1929 or A. D. 1872. Place of Deposit-Pandita Radha Chandraji, Bade Chaube, Mathurā.
Beginning.-श्री गुरुचरन कमलेभ्यानमः॥ अथ श्री पूजा विलास लिष्यते ॥ श्री नरहरिदास चरन उर धरौं ॥ भक्ति माय कछु वरनन करौं ॥ भाय भक्ति के हैं जु अपार ॥ थोरे कहाँ छोड़ि विस्तार ॥ सिवरी कव पूजा विधि बूझी॥ ठौर टौर हरि प्रीति जु सूझी ॥ समाध लगाइ मौन कव वैठी ॥ गोपिन को हरि पाई जूठी ।। सांचो है थोरो अनुसरै ॥ दीनदयाल कृपा अति करै ।। साधु कृपा हरि भक्तिहि पावै॥ सत गुरु विन को भेद लषावै ॥ चारि भांति के गुरु कहै जैसे ॥ तिन के भेद सुनौ पुनि तैसे ॥ जन्म गुरु विद्या गुरु कहिये ॥ कुल गुरु तजि सत गुरु पुनि लहिये ॥ तीन गुरू संसार न छूट। सत गुरु कृपा भकि निधि लूटै॥ चेला अंघो गुरु जु अंध ॥ कैसे करि सूझै गोविन्द ॥ सत गुरु सेा संसार छुड़ावै॥ मनके भ्रम सा सवै गंवावै ॥ सत गुरु लक्षण ॥ काम क्रोध लोभ को तजै ॥ अनन्य ह्र श्री कृष्णहि भजै ॥ परवत धर्म सवै हठि त्यागै ॥ साधुन के मुनि मारग लागै ॥