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APPENDIX II.
Subject . — जैनशास्त्र - ज्ञान
Note - मूल ग्रंथ के रचयिता वदर केराचार्य थे । भाषाकार - नंदलाल छावड़ा | जयपुरनरेश जयसिंह के समय में जयपुर राज्य के दीवान एक अमरचंद थे । नंदलाल ने इन्हीं की उत्तेजना से अनुवाद किया । नंदलाल के साथ और कई लोग थे जिन्होंने पुस्तक लिखने में नंदलाल की सहायता की थी ।
No. 122. Bhagavad Gita by Nandi Rama. Substance — Country-made paper. Leaves-190. Size-9" x 5". Lines per page-11. Extent-680 ślokas. Appearance-Old. Written in Prose and Verse both. Character-Nagari. Date of Composition – Samvat 1864 = A. D. 1807. Place of Deposit -- Pandita_Hara_Bhagavānaji, (grandson of the Author), Karchhanā, Allāhābad.
Beginning.—स्वम्ति श्री गणेशाय नमः यो अस्य श्री भगवद्गीता माला मंत्रस्य श्री भगवन्वेद व्यास ऋषि अनुष्टुप छंदेः श्री कृष्ण परमात्मा देवता अशोच्या नन्व शेाचस्त्रं आज्ञावादांश्च भाषए इति वीजं सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं बजेति''''हरि गौरीश गणेश गुरु प्रणवो शीश निवाय गीता भाषारथ करों मुनसीधर के भाय धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मिले युद्ध के साज संजय मा सुत पांडवन कोने से काज ॥ १ ॥ टोका ॥ धृतराष्ट्र पूछत हैं संजय से कि हे संजय धर्म का क्षेत्र से जु है कुरुक्षेत्र वा विषे एकत्र भये हैं और युद्ध की इच्छा धरतु है असे जे मेरे अरु पांडु के पुत्र ते कहा करत भये ॥ १ ॥ संजय उवाच दाहा | पांडव सेना व्यूह लपि दुर्योधन टिंग प्राय निज याचारज द्रोण सां वाल्या से भाय ॥ २ ॥ टीका ॥ अव संजय कहत हैं कि है धृतराष्ट्र दुर्योधन पांडवन की सेना दषि द्रोणाचार्य पास जाय अस वचन कहत भया सा पांडवन का सैन्य कैसा है व्यूह क है बनाय कै रच्येा है ॥ २ ॥ दाहा ॥ ताप गहत छोड़त जुहा सध्य बर्षत हो ही जान (1) अमृत मृत्यु कारण करन है। हो अर्जुन मानि ॥ १९ ॥ टीका ॥ हे अर्जुन सूर्य रूप तप मैं है। वर्षा समै मेघ रूप है। वर्षत है। वर्षा की निग्रह मै हो अमृत में हों मृत्यु में ही सत्त असत स्थूल सूक्ष्म सव मै है। से सकल ही विषै माका जानि के बहुत भांति मोही. का उपासत है ॥ दाहा ॥ यज्ञ करत पावन दहत चाहत स्वर्गहि वास इंद्रलोक ली भागवै दिव्य भाग सुविलास || टीका || हे अर्जुन वेद त्रयो के ज्ञाता है ते वेदोक्त जाप कर्म करके सोमपान सा पवित्र है कै स्वर्ग गति को प्रार्थना करत है ता यज्ञ के पुन्य ते इन्द्र लाक पाईये स्वर्ग विषै दिव्य भोग पावै देवता है के अनेक उत्तम सुष करै ॥ २० ॥ दोहा ॥ फिर आवत भूलोक मै छीन पुन्य जव हाय पावै आवागमन वे कामवंत