SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 266 APPENDIX II. No. 121. Malachāra by Nanda Lāla Chhāvada. Substance ~Country-made paper. Leaves-347. Size - 1227 x 67. Lines per page-13. Extont-21,150 Ślōkas. Appearance -Old. Character-Nagari. Date of Composition-Samvat 1888=A.D. 1831. Date of Manuscript — Samvat 1902=A.D. 1845. Place of Deposit —- Saraswati Bhandāra, Jaina Man - dira, Khurjâ. Beginning. - श्रीजिनायनमः । अथ मूलाचार भाषा लिप्यते ॥ दोहा ॥ वंदा श्री जिन सिद्ध पद || आचारज तुव काय ॥ साधु धर्म जिन भारती ॥ जिन ग्रह चैत्य सहाय ॥ १ ॥ वदर केर स्वामी प्रणमि || नमिव सुनंदी सूरि ॥ मूलाचार विचार के ॥ भाषैा लषि गुण भूरि ॥ असे सर्वज्ञ वीतराग मोक्ष मार्ग के प्रवर्त्तक || अठारह दोष रहित । छियालीस गुण विराजमान अरहंत परमेष्टी श्री जिन से ही गुरु परम गुरु ॥ तथा प्रष्ट कर्म रहित ॥ प्रष्ट गुण विराजमान || सिद्ध परमेष्टी ॥ से दोऊ प्रकार देव ॥ तथा छत्तीस गुण विराजमान ॥ प्राचार्य परमेष्टी ॥ पंचविशंति गुण विराजमान ॥ उपाध्याय परमेप्टी ॥ अट्ठाईस गुण विराजमान ॥ साधु परमेष्टो || से तीस प्रकार | अपर गुरु तथा केवलो प्रणीत दयामय । मुनि श्रावक भेद करि दाय प्रकार ॥ सम्यक दर्शन ॥ सम्यक ज्ञान || सम्यक चारित्रभेद करि तीन प्रकार । नुतमद्धमादि करि दश प्रकार धर्म । तथा प्रनिक्षरात्मक दिव्य धुनि रूप । अक्षरात्मक द्वादशांग ॥ अंग वाह्य आगम के इक्कावन सूत्र रूप धर्म प्ररूपक जिन भारती । तथा उर्द्धलोक मध्यलोक अधोलोक विषै तिष्ठतै कृत्रिम प्रकृत्रिम समस्त जिन ग्रह || तथा तिन समस्त मंदिरन विषै विराजमान || समस्त जिन चैत्य ॥ या प्रकार नव देवतानिका स्तन नमस्कार रूप मंगलाचरण करि ॥ अरु इनहो की मंगलात्तम शरण रूप जांनि ॥ चित्त विषे धारि ॥ श्री मूलाचार नाम प्राकृत गाथा गेय चरणानुरूप योग ग्रंथ ताकी संस्कृत टोका प्रचार वृत्ति के अनुसार देश भाषा मय वचनिका करोंगा || End. -वानी माता देवता ॥ वाणो सुष को खांन ॥ वानी दानी है बड़ी ॥ वानी तै भव हानि ॥ ३४ ॥ प्राकृत संस्कृत दो पढ़ । जे पंडित मतिमान | मंदमती के हेत यह ॥ भाषा ग्रंथ निदान ॥ ३५ ॥ सज्ज (न) पंडित जे बड़े । तिनसे विनती पह ॥ जहा अर्थ नोके नहीं ॥ तहां सुद्ध कर लेय ॥ ३६ ॥ वालक हमको जानियेा ॥ जो श्रुत पढे सुजान हास्य त्यागि करि सोधियो घरम प्रीति मन प्रांन ॥ ३७ ॥ देश वचन का रूप यह । भाषा जो हम कोन । मानवान की त्यागि कै ॥ धरम काल चित दीन ॥ ३८ ॥ लिषत लिषावत श्रुत विषै ॥ लागे दिठ नुपयेोग ॥ असुभ करम तासैौ इरौ ॥ शुभ मन वचन न येोग ॥ ३२ ॥ पढ़त
SR No.010837
Book TitleTenth Report on Search of Hindi Manuscripts for Years 1917 to 1919
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRai Bahaddur Hiralal
PublisherAllahabad Government Press
Publication Year1929
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy