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APPENDIX II.
ताकी है प्राकृति स्वर पूजा को ऐसा जो कुंडल सो गापाल के कान सैौ साहत है। सेभा पावत है ॥ किंवा कान मैं साहत है। तर्क करे है। समर जो है काम सा हिय जो मन सा है घर तामै पेंगो है ॥ श्रवन द्वारे ते ऐ रूप गुन सुने ते मानौं म्यौढी (प्रौढ़ी) ? पै यह निसान लसत है ॥ काम मकरदवज है ॥ कुंडल वस्तु ये निसान की संभावना ॥ उक्तास्पद वस्तूत्प्रेछा ॥ १६ ॥ मूल ॥ गोधन तू हरव्या हिये ॥ धरी कलेहि पुजाय समुझि परैगी सीस पर परत पसुन के पाय ॥१७॥ टीका-गोधन इति ॥ कोई दुष्ट पुरुष को राजा को अधिकार मिल्यो है। ताकी सुनाय गोधन से कोई कहत है। हे गोधन तु हिये में मन मैं हरष्यो। घरी एक तूंपुजाय लेहि । आदर कराय लेहि । तव तुम्है समुझि परेगी ॥ जव तेरी सीस पर सुनि के पाय परैगे ॥ जव राजा तुम पै वे गजी होयगो तव जानहुगे ॥ किंवा कोई पापिष्ट को सुनावै है। पाप से पिपीलिका को कम को जनम पावागे ॥ तव पसुन के पाव परत कै जानोगे गूढाक्ति अलंकार है । याकै अन्योक्ति कहत हैं। भाषा भूपन ॥ गुढोकति मिसि आर के कीज पर उपदश ॥ किंवा ॥ नायक काई स्त्री सी कहत है । वह गुरुजन में वैठी है। धन कहिये स्त्रो ।। सीत को संतायो धन रासि में परत है ॥ इहाँ श्लेष में स्त्रो॥ हे धन गो कहिार नेत्र ।। किंवा इंद्रिय मात्र । हमें दपि हिय मैं हरष्या ॥ घरी पक पुजाय लेहि ॥ हम सै पादर कराय लंहि ।। हम सों मिला यह अर्थ । नायिका वचन समुझि परैगो याका अर्थ ॥ गी कहिये वचन जो समुझि परे ॥ दाय अर्थ की बात है वह कोई जानै तो सीस पर परत पराया के सीम परें । सीस कारे जहि ॥ हे पम् ॥ जो कोई वड़ा छोटा नेन दपै साय सुनके पायन का कहिये पंह ताकी पाय कै। यह श्लेष के राह सां कहत है ॥ इत्यर्थः ॥ १७ ॥
End.- कीजै चित सांई तिरौं जिहि पति तन के साथ ॥ मेरे गुन गुन गननि गना न गोपीनाथ ॥ ६९९ ॥ टीका॥ कीजै चित इति ॥ साई उपाय चित में कीजिए । जिहिं जिस तरह सों पतित तरत हैं। जाके साथ मै भी तरौं ॥ पाया स्पष्ट तरिव को दृढ़ किया कायलिंग ॥ ६१९ ॥ सारठा ॥ मोहू दीजे मेोप ज्यों अनेक पतितनि दियो । ज्यों बांधे हो तोष तो बांधी अपने गुननि ।। इति शप्त सतकं ॥ टोका । साहू इति ॥ मोका भी माछ दीजिए । जैसे अनेक पतितन कों दिप हो ॥ जो तुमैं हम को बांधे ही सौं संताप है। तो अपने गुननि से यांधा । गुन डोरि गुनन श्लेषालंकार ॥ पहिले पापु कछु कहै फेरि फिरें आछेप भो है॥ ७०० ।। इति सप्तसत टोकायां बिहारो को करी पाथी है । मी प्राचीन पोथी है तामैं सात सै दोहा है। और दोहा बीच में पारि लोगनि ने राष्या है ॥ तासै बढ़ी है। मूल ॥ कोऊ कोरिक संग्रहो काऊ लाप हजार मो संपति जदुपति सदा विपति विदास्नहार ॥ ७०१॥ टोका"......."
......"शब्दालंकार भो है ॥७१३ ।। इति श्री कविराज
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