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APPENDIX II. पद वरनै कृपा विचार ॥ अति गहरी पौगंड रस तामें झलक सिंगार ॥४॥श्री हरिवंश कृपा वली कोयो हिये प्रकास ॥ वरम्या मंगल चरित यह फुरित भयो पनियास ॥५॥ जमन कछू संका दई वज जन भये उदास ॥ ता समये चलि तहां ते कियै कृष्ण गढ़ वास ॥ ६॥ नृपति वहादुर सिंघ सुत विड सिंघ तिन नाम ॥ सादर लाये संग करि दोनों पुर विश्राम ॥ ७॥ वसै विवेकी लोग जहां हरि हरि जन से प्रीति ॥ नृपति वहादुर सिंघ तहां परजा पालत नोति ॥ ८॥ महारांम मोदी सुमति तिनको सुंदर वाग ॥ तहां ग्रंथ पूरन भया कृष्ण कथा अनुराग ॥९॥ वासी वृदारन्य को श्री राधा वल्लभ भृत्य ॥ रसिक प्रेम वर्दन सुजस हित वृदावन कृत्य ॥ १०॥ ठारह से इकतीस में वर्ष भयो परवेश ॥ वदि वैशाषी सप्तमी रविवासर जु सुदेश ॥ ११॥ केलिदास निर्मल सुमति अक्षर अर्थ विचारि ॥ कृपा संत गुर पाइ कै कर वर लिषी सुधारि ॥१२॥ इति श्री कृष्ण विवाह उतकंठा वेली पद वंध बृंदावन दास जी कृत संपूर्ण ॥
Subject.-श्री कृष्ण की विवाह विषयक उत्कंठा का वर्णन ।
No. 34 (g). Śrī Rāsa-utsāha-varddhana Vēli by Brindā. vana Dasa. Substanoe-Country-made paper. Leaves-17. Size-8 x 64 inches. Lines per page-19. Extent504 Slokas. Appearance-old. Character-Nagari. Date of Composition-Samvat 1831. Place of Deposit-Lala Nan. haka. Chanda, Mathura.
Beginning.-अथ श्री रास उत्साह वर्धन वेली लिप्यते ॥ दुपई ॥ वंदों श्री हरिवंश नाम मंगल जु वलित है । वदन उचारत होति वुद्धि वांनी सुत्नलित है॥१॥ गुर हित रूप रसग्य सुमति कै साहस दीजै। सफल होहि ज्यों गिरा जुगल जस वरनन कोजै ॥२॥ वांनी वधू अलंकृत है निकसौ उर पुर ते । करी रसिक कुल साभित यह दत पाऊं गुर ते ॥ ३॥ सीलवंत गुनवंत जगत की मंगल करनी । चरित राधिका लाल पाभरन अंग अंग धरनी॥ ४॥ अर्थ गहरता वसन उक्ति पुनि जुक्ति सुटीको । हाव भाव सरसता ललित पद चलन जु नीकों ॥ ५ ॥ सुमतिनु की दिहु साभ सलज कुलवंती वाला। दरसावै वह पंथ भानुजा जहां नंदलाला ॥ ६॥ प्रेम प्रसन करवावा जो कोऊ पाश्रत हाई । जो धापै इहिं पाक जुगल भवंता जु साई॥७॥
End.-बैसत वासठ दुपई रस को परम प्रैन है ॥ वृदावन हित रूप रसिक पानंद दैन है ।। २५९ ॥ केलिदास हस्थाक्षर लिषी विचित्र रीति सौ ॥ पठन श्रवन रस भक्ति बढ़ावन परम प्रीति सैौ ॥२६० ॥ रविजातट डांशीवट मणिमंडल जुजहां है। दुलदुलहिनि नित्य रास कीड़ा सुतहा है॥२६१॥ महा रसिक