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APPENDIX II.
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___End.-विहागरी ॥ राधावल्लभ की है। सरनों ॥ अव के भेद बताया श्री गुर प्रभुदिस रुचि भई टरनीं ॥१॥ जनम जनम भूल्या तजि चरननि करि करि घाँटी करनी ॥ दोन बंधु घालता न सूझी पाधि व्याधि सव हरनों ॥२॥ रचि रचि कीनै कर्म पितर देवनि वहु दान उचरनों ॥ सर्दा सहित समयो तहिप मिटी न उर की जरनों ॥३॥ कृपा अकि रसिक साधुनि की सकल मनोरथ भरनी ॥ ४॥ ता वल माहि मंदमति भायौ वसिवा कानन धरनों ॥५॥ ग्रहा जुव(ग)लि चूड़ामणि रांनो मुरलीधर की धरनों ॥ ६॥ मेरो पछि किये प्रव वनि है इहिं वनं सुष विस्तरनों ॥७॥ सुपद पचीसो सुनि मन लरजी जिय जग उरझनि वरनों॥ वृंदावन हित रूप प्रमों स्वामिनि सुदृष्टि अव झरनों ॥ ८॥२५॥ दाहा ॥ गुर हित रूप सुमति दई सुविधि अराधन इष्ट ॥ राधाकृष्ण जु सुमिरनो कही पचीसी मिष्ट ॥१॥ ठारह सै पर तोस (१८३०) यो वर्ष जु सावन मास ॥ वदि सातै पूरन करी हित वृंदावन दास ॥२॥ इति श्री कृष्ण सुमिरन पचीसी पदवंध वृदावन दास जो कृत संपूर्ण ॥४॥
Subject.-श्री कृष्ण स्मरण-स्तुति, भक्ति और ज्ञान के पद। ___No. 34 (a). Ananda-varddhana-Veli by Brindavana Dasa. Substance-Country-made paper. Leaves-8. Size-8 x 64 inches. Lines per page-19. Extent-239 Slokas. Appearance-old. Character-Nagari. Date of compositionSamvat 1830. Place of Deposit-Lālā Nānhaka Chanda, Mathurā.
Beginning.-अथ श्री पानंद वर्द्धन वेलो लिष्यते ॥ दोहा ॥ श्री हरिवंश सरूप को जिनके हिये उदोत । तिन पद रज वंदन करौं धन्य जनम पनि गीत ॥१॥ व्यासनंद पद कमल सों जाको अति अनुराग । साई सविधि लहहि राधा विपुल सुहाग ॥२॥ मानवंश उद्भव कियो हरि अहिलादनि साइ। श्री हरिवंश कृपा विनां ता पद प्रीति न होइ ॥३॥ रूप अवधि करुना अवधि अवधि प्रेम की जांनि । तारा तनय सुदृष्टि करि वे पद उर मे पानि ॥ ४॥ श्री वृषभान कुवांर के भवन रहतु उद्दात । मधुर तेज अद्भुत निरषि सकुचंत दुति धर गोत ॥५॥ तात मात अचिरज रहत सुधन प्रलाकिक पाइ । मन पानंद को मित नहीं रसना कह्यो न जाइ ॥६॥ ___End.-चुनि लाई वन मधुर फल भोजन करति सराहि ॥ यह वानिक अवलोकि कै समकों दीजै काहि ॥ १२५ ॥ जे जे लागत मिष्ट अति ते ते धरे जु जारि ॥ सषी सांवरी देति है प्यारी वदन निहारि ॥१२६ ॥ यह साभा यह लाड सुष दुर्लभ लोक विलोकि ॥ श्री हरिवंश प्रसाद वल इहां राषि चित रोकि ॥१२७॥ धनि वरसानों गांवरी भयो गोपकुल धन्य । वृदावन हित रूप निधि जहां