________________
113
Beginning.-.- अथ श्री रसिक जन वर्द्धन वेली छंद वंद लिष्यते ॥ राग सेारठ ॥ छंद ॥ हित रूप कृपा गुर पाऊं ॥ रसिकनि चरित्र कछु गाऊं ॥ भक्तनि की निर्मल करनी ॥ सब जुग मैं सुमतिनु वरनों ॥ सुमति सव जुम मांहि वरनीं रसिक जन कौतिक कथा || परम मंगल लाक करनी ताहि वरनों मति जथा ॥ श्री हरिवंश उदार कीरति पवन सम जग मैं चलो || भक्ति वेली वढ़ो दिन दिन महा भावन फल फली ॥ १ ॥ कलि भई अग्यान अंधेरी ॥ स्वामिनि सुदृष्टि तव हेरी ॥ वंशी की आग्या दीनी ॥ रस भक्ति प्रचुर हठि कोनी ॥ कोनों प्रचुर रस भक्ति हठि
पानि वंशो वपु धरौ ॥ तारा जू जननी मोद दै जसु व्यास जनक जु विस्मय ॥ कमनीयं वृंदारन्य वासि रस भजन गोप्य चिताइयैा ॥ राधिका age प्रेम परचे मागि भोजन पाइयैौ ॥ २ ॥ प्रभु मानसरोवर दरसे ॥ हित पै सुदृष्टि रस वरसे || मंडलनि जु रास दिषायैौ ॥ पद रचना करि सा गाया || गाय चितायै कुंवरि सेवा कुंज सज्या थर्पिये ॥ रहसि लीला ठौर साता समय भोग ये ॥ कानन जु नित्य विहार श्री वंशी प्रगट है कैं कछो ॥ श्री व्यास सुवन सुदृष्टि जिन तन भेद यह सुकृतिनु लह्यौ ॥ ३ ॥
APPENDIX II.
End. - दोहा । रसिक भक्त जसवर्द्धनी वेलो भई प्रकास ॥ चरित प्रलाकिक फल लगे जिन मैं अधिक मिठास ॥ १ ॥ पठन श्रवन जे करेंगे हाइ सुष विर्द्ध होय ॥ भक्तनि जस के वस सदा रहतु राधिका पीय ॥ २ ॥ इन भक्तनि सौं बीती अपनाई करि लेहु ॥ हित सरनागत जानि कैं अरुचि मैं रुचि देहु ॥ ३ ॥ कव पुजवा कृपा करि यह मन की अभिलाष ॥ दंपति संपति पास तुम देहु सरनि निजु राषि ॥ ४ ॥ ठारह से पच्चीस य सुदि त्रितिया मधुमास ॥ वलि हित रूपी जसको हित वृंदावन दास ॥ ५ ॥ इति श्रो रसिक जसवर्द्धन वेली वृंदावन दास जी कृत संपूर्ण ॥
Subject. - भक्ति और ज्ञान के पद ।
No. 34 (b). Yugala-priti-prakasa-Pachisi by Brindavana Dāsa. Substance-Country-made paper. Leaves-14. Size-8 x 6 4 inches. Lines per page — 19. Extent - 415 Ślōkas. Appearance -old. Character-Nagari. Date of Composition—Samvat 1829. Place of Deposit -- Lala Nauhaka Chanda, Mathurā.
Beginning.- अथ श्री जुगल प्रोति प्रकास पचीसो लिष्यते ॥ प्रथम श्रो लाल जु के वचन ॥ चर्चरी राग ॥ जयति गौरंग वल, मदन दल फेरनी ॥ कुंज गढ़ अजित ता सीम चापि न सकै देत मा सत्रन सुष रति कला प्रेरनी ॥ १ ॥ महाभट अंग छबि निरषि ग्रोवां नवै मृदु वचन सुनत मन वित्तं उर भेरनी ॥