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APPENDIX i1.
End. - माया ही वसंत रितु फैलो षंड मंडल मै स्याम सेत लाल फूल कपट महाभरी ॥ केते हम देषे देखा याही में मगन हात जाग न फेरी ऐसी दारुन लषी परी ॥ कर न भनत वढ्यो लोभ के मतंग ही पै मानत न सोष कहा जानि कै यहै घरो || भामत रहत बिन काज हो नापिर होत परे मन भार तोहि प्रकृति कहा परी ॥ ९३ ॥
अपूर्ण
Subjoot. - सच्चा इश्क ब्रह्मज्ञान का ग्रात्मज्ञान हो है ।
No. 31. Brahma Vilāsa Kavitta by Brahma (Jñānēndu). Substance-Country-made paper. Leaves-4. Size-52 × 5 inches. Lines per page-15. Extent-60 Ślōkas. Appearance-old. Character—Nägari. Place of Deposit - Rama
Gopala Vaidya, Jahangirābād, Bulandaśahar.
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Beginning.—अथ ब्रह्म विलास के कवित्त लिष्यते ॥ काहे कुं कूर तूं कोध करै प्रति ताहि रहे दुष संकट घेरें । काहे कू मानं महा सव राषत प्रावत काल छिन छिन रे || काहे कू अंध तूं वंधत माया सौं ए नरकादिक मे ताहि गेरें । लाभ महा दुष मूल है भैया तू चेतन क्यों नहि चेति सबेरै ॥ १ ॥ जेते जग पाप होहिं प्रथम के व्याप हाहि तेत सव बकून को मूल लाभ जानिरे ॥ जेते दुष पुंज होहि कर्मन के कुंज होहि तेते सव फूल ताकी मून नेह जानरे ॥ जेते बहु रोग होहि व्याधि का संयोग होहि तेतं सव मूल का अजीरन परवान रे ॥ जेते जग मर्ग होइ काहू को न सर्य होंहि तेते सव रूप को शरीर ही वषान रे ॥ २ ॥ ग्यान मैं है ध्यान में है वचन प्रवान मै है अपने सुधान मै है ताहि पहिचानु रे । उपजैन उपजत मुए न मरतु है उपजन मरन व्योहार ताहि मानु रे ॥ राव से न कसा है पानी सेा न पंक से है प्रति हो अटंक सा है ताहो नीकै जानु रे । चपन प्रकास करै प्रष्ट कर्म नास करै असीजाको रोति भैया ताहि उर चान रे ॥ ३ ॥
End. - काया सी जु नगरी मैं चिदानंद राज करै माया सो जु रानी मै मन बहु भयो है | मोह सा है फोजदार कोध सा है कोतवाल लाभ सेा वजीर जहां लूटवे की रह्यो है ॥ उदै को जुकाजी माने मान को प्रदल जानै काम सेवा काज वीच प्राय वाकौं कह्यौ है । पैसो राजधानी मैं अपने गुन भूलि गया सुधि तब आयो जव ग्यान प्राय गह्यो है ॥ २४ ॥ कौन तुम कहां आप कौने aru तुम्हे का काके रंग रचे कछु सध्या धरतु हा ॥ कौन है प कर्म जिन्हे एकमेक मानि रहे अर्जऊं न लागे हाथ भावरी भरतु है। ॥ वेदिना चितारी जहां