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APPENDIX II.
End-जव सम्यक ज्ञान होता है ॥ तव लीन हो जाता है । अपने विषै॥ जैसे समुंद्रि ते तरंग उपजि करि म्मुंद्र विषै लीन हो जाता है । तैसे पात्मा तें जगत उपजि करि प्रात्मा विषे लीन होता है ॥ इति श्री महारामायणे मोक्षोपाय शति सहश्र संहितायां देव दुतोकं वालकांडे उत्पति प्रकणे परमार्थ निरूपणं नाम सर्गः ॥ ९७ ॥ उत्पति प्रकणे समाप्तं शुभं संवत १८७९ कार्तिक कृष्ण द्वितीया शुक्रवार ॥ लिषतं शुभं ॥ भवतु ॥ दोहा ॥ स्याही कालो ब्रह्म है ॥ कागद लेषन हार ॥ वक्ता श्रोता मादि लै सर्व ब्रह्म निरधार ॥ १॥ पुस्तक लिषो वावा जी पण घणो देव जी नील पर्वत वासी ॥ तथा अंवरिसरि अषाडा श्री गुरुनानक जी का कचहरी घाट चित्रमास वसते भए ॥ तहां पाथी शोहनलाल ने लिषी ॥ गुरुनानक जी का झंडा पादुका वावा अनघण देव ब्रह्मदेव स्थापत करि गए ॥
Subject:-ज्ञान-योगवाशिष्ठ-महारामायण का उत्पत्ति प्रकरणहिन्दी गद्य में।
No. 23. Bheda Bhaskara by Bhagvata Dasa. Substance-Country-made paper. Leaves-7. Size-11 x 6, inches. Lines per page-15. Extent-225 Slokas. Appearance-old. Character-Nagari, Date of ManuscriptSamvat 1921. Place of Deposit- Sarasvati Bhandara, Lakshmana Kota, Ayodhya.
Beginning-श्रीमते रामानुजायनमः ॥ श्री रामानुज जे भजे तिन समान नहिं कोय । ग्यानी ध्यानी जगत में कैसा क्यों नहिं होय ॥१॥ पंचायुद्ध मिलाय के कीयाग्थवा विश्वक्सेन । किं अनंत पति राज है प्रगटे जन सुख दैन ॥२॥ दुष्ट दलन पुनि श्रेष्ट जन रक्षा हित अवतार । प्रगटे द्राविड देश में लीला नर वपु धार ॥३॥ यैसै श्री यतिराज को शरणागति जे होय । ताकं वद नहि जानिये नित्य मुक्त है साय ॥ ४॥ रामानुज सनवंध विनु जेते जग में योग । विमुख सवै पहिचानिये मिटै न माया रोग ॥ ५॥ चारि वेद षट शास्त्र को वका यद्यपि होय । रामानुज सनवंध विनु मुकि लहैं नहिं काय ॥ ६॥ रामानुज मत छोड़ि के जेते मत जग मांहिं । पाषंडी सब जानिये या में संशय नाहिं ॥ ७ ॥ वेद सार जान्यो नही भूलि रहे जग माहि । ताको मनुष न जानिये गनिये पशुपन मांहि ॥८॥
End-छप्पय ॥ भेद भास्कर है अभेद तम को यह नाशक । प्रगट जीव जगदीश तत्व को यहै प्रकाशक ॥ संत हृदय सत ख्याति वादि पंकज को सविता । श्री निवास को दास जुगति वड ताको कविता ॥ भेद भास्कर को