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( ११ ) परिणामों की अपेक्षा ही वहां कथन करते हैं। इतना विशेष है कि चरणानुयोग में तो बाह्य क्रिया की मुख्यता से वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोग में आत्मपरिणामों की मुख्यता से निरूपण करते हैं।"
पन नं. २८७ में "द्रव्यानुयोग में न्याय शास्त्रों की पद्धति मुख्य है क्योंकि वहां निर्णय करने का प्रयोजन है।" पत्र नं. २८६ में "जिन प्रकार यथाच्यात चारित्र होने पर तो दोनों अपेक्षा शुद्धोपयोग है परन्तु निचली दशा में द्रव्यानुयोग अपेक्षा तो कदाचित शुद्धोपयोग होता है परन्तु करणानुयोग अपेक्षा सदा काल कपाय अंग के मद्भाव से शुद्धोपयोग नहीं है। इसी प्रकार अन्य कथन जान लेना।" पण्डितजी साहब पन नं. २६२ पर द्रव्यानुयोग में दोप-कल्पना के निराकरण प्रकरण में "कोई जीव द्रव्यानुयोग के कथन को सुनकर स्वच्छन्द हो जावेंगे" ऐसी कल्पना के उत्तर में कहते हैं कि "जैसे गधा मिश्री खाकर मर जाय तो मनुप्य तो मिश्री खाना नहीं छोड़ेंगे, उसी प्रकार विपरीतवुद्धि अध्यात्म ग्रन्थ सुन कर स्वच्छन्द हो जावे तो विवेकी तो अध्यात्म ग्रन्थों का अभ्यास नहीं छोड़ेंगे....इसलिये जो भलीभांति उनको सुने वह तो स्वच्छन्द होता नहीं परन्तु एक बात सुनकर अपने अभिप्राय से कोई स्वच्छन्द हो तो ग्रन्य का तो दोप है नहीं, उस जीव ही का दोप है....निषेध करें तो मोक्षमार्ग का मूल उपदेश तो वही है, उसका निषेध करने से तो मोक्षमार्ग का निषेध होता है।"
पन्न नं. २६३ में भी बताया है कि "अध्यात्म ग्रन्थों से कोई स्वच्छन्द हो, सो वह तो पहिले भी मिथ्यादृष्टि था, अब भी मिथ्या