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________________ स्वल्प है सो उपचार है।" पत्र नं. २८२ में "चरणानुयोग में छद्मस्थ की बुद्धिगोचर स्थूलपने की अपेक्षा से लोक प्रवृत्ति की मुख्यता सहित उपदेश देते हैं परन्तु केवलजान गोचर सूक्ष्मपने की अपेक्षा नहीं देते ।" इस प्रकार चरणानुयोग के कथन का अभिप्राय जानकर अभ्यास करना योग्य है। द्रव्यानुयोग के कथन की पद्धति द्रव्यानुयोग के सम्बन्ध में पन नं. २७१ में "द्रव्यानुयोग में द्रव्यों का.व तत्वों का निरूपण करके जीवों को धर्म में लगाते हैं। जो जीव, जीवादिक द्रव्यों को व तत्वों को नहीं पत्रानते, आपको परको भिन्न नहीं जानते, उन्हें हेतु-दृष्टान्त-युक्ति द्वारा व प्रमाण नयादि द्वारा उनका स्वरूप इस प्रकार दिखाया है जिससे उनको प्रतीति हो जाये। उसके अभ्यास से अनादि अनानता दूर होती है।" इसी बात को पंडितजी ने पत्र नं. २८४ में भी दोहराया है तथा कहा है "क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान कराने का प्रयोजन है।" आगे कहा है कि "द्रव्यानुयांग में निश्चय अध्यात्म उपदेश की प्रधानता हो, वहां व्यवहार धर्न का भी निषेध करते हैं।" पन्न नं. २८५ में स्पष्टीकरण किया है "इसी प्रकार अन्य व्यवहार का निषेध वहां किया हो उसे जानकर प्रमादी नहीं होना, एना जानना कि-जो केवल व्यवहार साधन में ही मन्न हैं, उनको निश्चय रुचि कराने के अर्थ व्यवहार को हीन बतलाया है।" इस ही पत्र में कहा है कि "द्रव्यानुयोग में भी चरणानुयोगवत् ग्रहणत्याग कराने का प्रयोजन है, इसलिये छद्मस्य के वुद्धिगोचर
SR No.010826
Book TitleShastro ke Arth Samazne ki Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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