________________
( १२ ) दृष्टि ही रहा । इतना ही नुकसान होगा कि सुगति न होकर कुगति होगी परन्तु अध्यात्म उपदेश न होने पर बहुत जीवों के मोक्षमार्ग की प्राप्ति का अभाव होता है और इसमें बहुत जीवों का बहुत बुरा होता है इसलिये अध्यात्म उपदेश का निषेध नहीं करना।" इसी की पुष्टि आगे करते हैं कि "जिनमत में तो यह परिपाटी है कि पहिले सम्यक्त्व होता है फिर व्रत होते हैं, वह सम्यक्त्व स्वपरका श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग के अभ्यास करने पर होता है इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो पश्चात् चरणानुयोग के अनुसार व्रतादि धारण करके व्रती हो । इस प्रकार मुख्य रूप से तो निचली दशा में ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है ।"
आगे कहते हैं कि "अभ्यास करने से स्वरूप भली-भांति भासित होता है, अपनी बुद्धि अनुसार थोड़ा-बहुत भासित हो परन्तु सर्वथा निम्द्यमी होने का पोषण करे, वह तो जिनमार्ग का द्वेपी होना है।" इसी पन्त्र के अंत में उपसंहार करते हैं "इसलिये आत्मानुभवनादिक के अर्थ द्रव्यानुयोग का अवश्य अभ्यास करना।" इस प्रकार पद्धति को लक्ष्य में लेकर द्रव्यानुयोग का अभ्यास करना चाहिये।
व्याकरणादि शास्त्रों का अभ्यास व्याकरण न्यायादि ग्रन्थों के अभ्यास के विषय में पण्डितजी साहब पन नं. २८८ में कहते हैं कि "यहां इतना है कि ये भी जैन शास्त्र हैं ऐसा जानकर इनके अभ्यास में बहुत नहीं लगना । यदि