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अयंगम्, ज्ञान वैच पूजा ये अतिशय चतु मान ॥ द्वादशं गुण ये बड़े देव अरिहंत प्रभूके भवि उरधार ॥ याकी० ॥१॥ ऋद्ध: सिद्ध नव निद्ध प्रगट होय पलक माहिश्री. सिद्ध जपंतः ॥ वसुगुण जिनके सुमरिये प्रात उठ, भवि बेठ इकंत ॥ ज्ञान अनतः अनंतही दर्शन है सुख अव्याबाधि अनत।। रागद्वेष से भिन्न ताते प्रभु खायक समकित "बँत ।। अचल अमूर्तिक अगुरुलघू गुण कर राज श्री सिद्ध महंत ।। शक्ति अनंती अनंते शान बान कोउ लखें सुसंत । ये वसु गुणकर युक्त मुक्त भगवँत नमो नित वारवार।। याकी ॥२॥ पंचेन्द्रीवश करें ब्रह्म बत धरै बाइनवसे में विसाल ॥ मू के