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________________ १६० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. तवां लोकालोकनुं संपूर्ण स्वरुप आवी जाय छे. जे प्रमाणे जेनी बुद्धिनी गति छे, ते प्रमाणे तेओ तत्त्वज्ञान संबंधी द्रष्टि पहचाडे छे; अने भावानुसार तेओना आत्मानी उज्जवळता थाय छे, ते वडे तेओ आत्मज्ञाननो निर्मळ रस अनुभवे छे. जेनुं तत्त्वज्ञान उत्तम अने सूक्ष्म छे, तेमज मुशीलयुक्त तत्वज्ञानने सेवे छे ते पुरुष महद्भागी छे. ए नवतत्त्वनां नाम आगळना शिक्षापाठमां हुं कही गयो छउँ; एनुं विशेष स्वरूप प्रज्ञावंत आचार्योना महान् ग्रंथोथी अवश्य मेळव; कारण सिद्धांतमां जे जे कयुं छे, ते वे विशेष भेदयी समजवा माटे सहायभूत प्रज्ञावंत आचार्यविरचित ग्रंथो छे, ए गुरुगम्यरूप पण छे. नय, निक्षेप अने प्रमाणभेद नवतत्त्वनां ज्ञानमां अवश्यना छे; अने तेनी यथार्थ समजण ए प्रज्ञावंताए आपी छे. शिक्षापाठ ८३. तत्वावबोध भाग २ - सर्वज्ञ भगवाने लोकालोकनां संपूर्ण भाव जाण्या अने जोया तेनो उपदेश भव्य लोकोने कर्यो. भगवाने अनंत ज्ञानवढे करीने लोकालोकनां स्वरुप विषेना अनंत भेद -जाण्या हता; परंतु सामान्य मानवियोने उपदेशभी श्रेणिए चढवा मुख्य देखता नव पदार्थ तेओए दर्शाव्या. एभी कोकालोकना सर्व भावनो एमां समावेश थइ जाय छे.
SR No.010820
Book TitleMokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1962
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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