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________________ २४२ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका तो ज्ञान कहलाता है । चक्षुर्दर्शनका तात्पर्य तो यह है कि चक्षुरिन्द्रियजन्य ज्ञानले पहिले चाक्षुपज्ञानके लिये किया गया जो आत्मप्रतिभासरूप प्रयत्न (शक्तिग्रहण) है वह चक्षुर्दर्शन " है । इसी प्रकार प्रचक्षुर्दर्शन नादिके सम्बन्धमे जानना। प्रश्न १५- ज्ञानको तो "स्वपरप्रकाशक' कहा गया है, फिर यहाँ ज्ञानको केवल परग्राहक क्यो कहा जा रहा है ? उत्तर-जो लोग ज्ञान और दर्शन ऐसी दो शक्तियाँ नही मानकर आत्मामे मात्र ज्ञानशक्ति मानते है और फिर उस ज्ञानको केवल परग्राहक मानते हे उन्हे प्रतिबोध करनेके अर्थ ज्ञानको स्वपरप्रकाशक बताया है अर्थात् ज्ञानको आत्मा व पर दोनोका प्रकाशक कहा है । __ प्रश्न १६-यदि ज्ञान वास्तवमे परको हो जानता है, आत्माको नही, तब तो ज्ञान अस्वसवेदी हो जायगा और तब यह ज्ञान सच्चा है, इसके ज्ञानके लिये अन्य ज्ञानकी अपेक्षा करनी पडेगी? उत्तर- ज्ञान परको भी जानता है और जिस ज्ञानने परको जाना वह ज्ञान ठीक ही है ऐसी जानकारी सहित जानता है अन्यथा परके ज्ञानमे नि शङ्कता नही पा सकती। अत. ज्ञान अस्वसवेदी नही हो जाता। - प्रश्न १७- "ज्ञान स्वपर-प्रकाशक है" यह क्या विल्कुल असत्य है या किसी दृष्टि से सत्य है ? उत्तर- आत्माका असाधारण भाव चैतन्य है । चैतन्यके विकासकी दो पद्धतियाँ है(१) प्रात्माके ग्राहकरूपसे प्रवृत्त होना, (२) परद्रव्यके ग्राहक रूपसे प्रवृत्त होना। इनमे पहिली कलाको दर्शन कहते हैं और दूसरी कलाको ज्ञान कहते हैं । आत्माकी समस्त कलावो और शक्तियोका निश्चायक ज्ञान होता है और ज्ञानसे ही ममस्त व्यवहार होते है । अतः । व्यवहार व व्यवहारके प्रसङ्गमे समस्त चैतन्य ओर ज्ञानमे अभेद विवक्षा करके पश्चात् प्रतिबोध किया जाता है तब "ज्ञान स्वपर-प्रकाशक है" यह बात सत्य ही कथित होती है। प्रश्न १८- दर्शन सर्वपदार्थोका सामान्य प्रतिभाम करता है, यदि यह वात अनुपयुक्त है तो ऐसा कहा ही क्यो गया ? उत्तर- दर्शन यात्माका प्रतिभाम करता है। प्रात्माके प्रतिभासमे प्रात्माकी समस्त शक्तियोका विकास भी निर्विकल्परूपसे प्रतिभासमे पा जाता है। इस रीनिसे ज्ञानने जितने परपदार्थो का ग्रहण किया था वे मव पदार्थ भी दर्शनमे गृहीत हो जाते है। इस नयसे "दर्शन सर्वपदार्थोका सामान्य अवलोव न करता है" यह बात उपयुक्त हो जाती है।" प्रश्न १६-जो लोग आत्मामे सिर्फ ज्ञान गुण मानते है उन्हें "ज्ञान प्रात्मप्रकाशक है" इस कथनके बजाय "आत्मामे दर्शन गुण भी है वह प्रात्माका प्रकाशक है" ऐसा सीधा
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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