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________________ गाथा ४३ प्रश्न - व्यवहारनय या निश्चयनय भी तो ज्ञान है और वे एक अंशको जानते हैं ? • उत्तर- व्यवहारनय या निश्चयनय यद्यपि ज्ञान है और वे एक अशको जानते है, तथापि कोई भी नय ज्ञान प्रमाण नही माना गया है। क्योकि नय पूर्ण वस्तुको नही जानते है। प्रश्न १०- तो क्या नय अप्रमाण है ? उत्तर- नय न तो प्रमाण है और न अप्रमाण है, किन्तु प्रमारणाश है। जैसे कि समुद्रकी बिन्दु न तो समुद्र है और न असमुद्र है, किन्तु समुद्राश है । प्रश्न ११- निर्विकल्प स्वसवेदन दर्शन कहा जायगा या ज्ञान ? उत्तर- निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानकी ही अवस्था है, अतः ज्ञान कहा जायगा। प्रश्न १२-ज्ञानका विषय तो परपदार्थ होता है। इस निर्विकल्प स्वसवेदनका विपय कौनसा परपदार्थ है ? उत्तर- ज्ञानका विषय परपदार्थ ही होता है। ऐसा विपय नही, किन्तु परपदार्थ ज्ञानका हो विषय होता है यह नियम है। इसी प्रकार जिस प्रतिमासका विषय आत्मा हो वह दर्शन हो होता है ऐसा नियम नही है, किन्तु दर्शनका विषय आत्मा ही होता है यह नियम है । ज्ञानका विषयभूत आत्मा भी निराकार प्रात्मतत्त्वके समक्षपर है । प्रश्न १३- जब निर्विकल्प, स्वसवेदन और दर्शन-इन दोनोका विषय आत्मा है, तब यह कैसे पहिचाना कि निर्विकल्प स्वसवेदन ज्ञान है, दर्शन नही ? Neha उत्तर- निर्विकल्प स्वसवेदन सर्वथा निर्विकल्प नहीं है, किन्तु उसमे निराकुल सहज अानन्दका अनुभव आदि अनेक प्राकारोका ग्रहण है, प्रत स्वरूपसे सविकल्प है । निर्विकल्प स्वसवेदनके कालमे अनिहित, ज्ञान प्रयोज्य अनेक सूक्ष्म विकल्प है, किन्तु उनकी मुख्यता नहीं । है, सो वह निर्विकल्प कहा जाता है । जहाँ अर्थ विकल्प है वह ज्ञान है, अतः निर्विकल्प स्वसवेदन ज्ञान है। शिष, भेद करके दर्शन सर्वथा निर्विकल्प होता है । यह किसी भी गुण, पर्याय, सामान्य, विशेष आदि श्राकारोका ग्रहण नहीं करता है। सरल शब्दोमे यह कहा जा सकता है कि कुछ भी ज्ञान करनेके लिये जो प्रतिभासात्मक उद्योग है उसे दर्शन कहते है। इस प्रकार यद्यपि निर्विकल्प स्वसवेदन व दर्शनका विषय आत्मा है तथापि स्वरूपकृत महान् अन्तर है। । प्रश्न १४–यदि दर्शनका विषय आत्मा है और वह भी अविशेषरूपसे, तो चक्षुर्दर्शन आदिका क्या तात्पर्य रहा ? उत्तर- चक्षुर्दर्शनका अर्थ चक्षुरिन्द्रियसे देखना, यह अर्थ नही है । चक्षुरिन्द्रियसे देखना inci4Eना
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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