SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका उत्तर--जब यह जीव नोकर्म (शरीर) व कर्ममे अत्यन्त विमुक्त होकर केवल शुद्धस्वभावमे परिणब हो जाता है तब इसका ऊर्ध्वगमन स्वभाव प्रकट हो जाता है अर्थात् सर्व कर्मोंका क्षय होते ही जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावसे एक ही समयमे एकदम ऊपर चला जाता है । प्रश्न १५-यह जीव ऊपर कहाँ तक चला जाता है ? उत्तर-मुक्त जीव लोकके अन्त तक चले जाते है, इससे आगे धर्मास्तिकायका निमित्त न होनेसे वह अपने स्वतत्र अवस्थानसे वहा निश्चल हो जाते है। प्रश्न ५६- तब तो मुक्तोका भी गमन पराधीन हो गया ? उत्तर-पराधीन तो तब कहलाता जव धर्मास्तिकाय अपनी परिणतिसे मुक्त जीवको चलाता, किन्तु मुक्त जीव अपने स्वभावसे अपनी परिणतिसे गमन करते है, वहाँ धर्मास्तिकाय निमित्तमात्र है। प्रश्न ५७-इस समस्त वर्णनसे हमे सक्षिप्त सारभूत क्या प्रयोजन लेना है ? उत्तर- इन समस्त अवस्थावो रूप जो बनता है, ऐसे एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव-) तत्त्वपर लक्ष्य करना है । जिससे निर्मल ज्ञान आनन्दकी पर्यायका प्रवाह चल उठे। प्रश्न ५८-तब तो इस ही सारभूत तत्त्वका वर्णन करना था, सब अधिकारोके वर्णनसे क्या प्रयोजन था ? । उत्तर- जीवतत्त्वके व्यवहार पर्यायको ही यथार्थतया न समझे वह पर्यायान्वयी जीवद्रव्यको समझनेकी पात्रता कहाँसे लावेगा ? इसलिए यह पर्यायवर्णन भी इस प्रयोजनके लिये आवश्यक है। अब जीव प्रादि नव अधिकारोकी सूचना करने वाली इस द्वितीय गाथाके अनन्तर बारह गाथावोमे इन्ही नव अधिकारोका विवरण किया जावेगा । जिसमे प्रथम जीव अधिकार के सम्बधमे गाथा कहते है-- तिक्काले चदुपाणा इदिय बलमाउ प्राणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्चयरणयदो दु चेदणा जस्स ॥३॥ अन्वय-ववहारा जस्स तिक्काले चदु पाणा इदिय बल आउ य आणपाणो सो जीवो हु णिच्चयणयदो मस्स चेदणा सो जीवो। अर्थ- व्यवहारमयसे जिसके तीन कालमे इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास, ये चार प्राण हो वह जीब है, परन्तु निश्चयनयसे जिसके चेतना है वह जीव है। प्रश्न १-जिस जीवके ससार अवस्थामे तो ये चार प्राण थे, किन्तु अब मुक्त अवस्था मे पानेसे प्राणोका अभाव है तो क्या वह व्यवहारनयसे जीव नही कहा जायगा ? - उत्तर-तीनो कालमे हो या केवल भूतकालमे थे, अब नही हो तो भी भूतकालमे
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy