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गावा २
पुद्गल ही ससारको करता है, आत्मा तो मात्र साक्षी ही है श्रादि बातोका निराकरण हो
जाता है ।
प्रश्न ४७ - आत्मा सिद्ध है, यह किन-किन दृष्टियोसे कहा जाता है ?
उत्तर - मुख्य प्रकृत अर्थं तो यह है कि आत्मा कर्म नोकर्म मलोसे दूर होकर ससार से सर्वथा मुक्त हो जाता है, वह श्रात्मा सिद्ध है । इस विषयको और विशद करनेके लिये चार दृष्टियाँ लगाना - - ( १ ) व्यवहारनय, (२) अशुद्ध निश्चयनय, (३) शुद्ध निश्चयनय, (४) परमशुद्ध निश्चयनय ।
प्रश्न ४८- - व्यवहारनयसे क्या सिद्धत्व है ?
उत्तर -- व्यवहारनयसे यह जीव प्रसिद्ध है, सिद्ध नही है । वह तो गति, जाति प्रादि श्राकाररूप अपनेको साधता है ।
प्रश्न ४६ – शुद्ध निश्चयनयसे क्या सिद्धत्व है ?
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उत्तर — इस नयसे भी श्रात्मा प्रसिद्ध है, सिद्ध नही है । वह तो कषाय आदि विभावोको साधता है ।
प्रश्न ५० - शुद्ध निश्चयनयसे जीव कैसे सिद्ध है ? उत्तर-- अपने श्रापके स्वभावपरिणमनसे यह प्रात्मा सिद्धप्रभु है । ये कभी सिद्ध अवस्थासे च्युत नही होते, सदा शुद्ध प्रश्न ५१ – परमशुद्ध निश्चयनयसे क्या सिद्धत्व है ? उत्तर - यह नय पर्यायको नही असिद्ध है । एक चैतन्यस्वभावी है जो कि प्रश्न ५२ - आत्माको सिद्ध होकर हो जाना चाहिये ?
उत्तर - सर्व कर्मोके अत्यन्त क्षयसे जहाँ सिद्ध अवस्था प्रकट होती है वहीं विभाव उत्पन्न होने का कोई कारण नही, इसलिए सिद्ध भविष्यमे सर्वकाल तक सिद्ध ही रहेगे, उनकी सीमा होती ही नही ।
प्रश्न ५३ -- जीव स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करता है, यह विशेषण तो प्रत्यक्षसे भी बाधित है, क्योकि हम देखते है कि जीव जैसे चाहे जहाँ चाहे फिरते है ?
उत्तर - जीवका स्वभाव तो ऊर्ध्वगमनका है, परन्तु कर्म नोकर्मकी सगति से यह स्वभाव तिरस्कृत हो रहा है । श्रदारिक वैक्रियक देहके सम्बन्धसे तो यह विदिशा तकमे भी गमन कर जाता है ।
प्रश्न ५४ - तब यह ऊर्ध्वगमन स्वभाव कब प्रकट होता है ?
अपने गुणोके पूर्ण विकास से सिद्ध ही रहेगे ।
देखता, इसलिए इस दृष्टिमे श्रात्मा न सिद्ध है, न स्वत सिद्ध है ।
भी सिद्धकी मर्यादा समाप्त होनेपर उन्हे प्रसिद्ध