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द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका उत्तर- शुद्धनिश्चयनयसे आत्मा रत्नत्रयरूप शुद्धपरिणमनसे उत्पन्न हुए पारमार्थिक आनन्दको भोगता है।
प्रश्न ३८- परमशुद्धनिश्चयनयसे आत्मा किसको भोगता है ?
उत्तर- इस नयकी दृष्टिमे ध्रुव एक चैतन्यस्वभाव ही प्राता है, उसमे भोक्ताका विकल्प ही नहीं है, इसलिये आत्मा किसीका भी भोक्ता नही है ।
प्रश्न ३६-प्रात्माके 'भोक्ता' विशेषणसे अन्य क्या विशेषता सिद्ध हुई ?
उत्तर- क्षतिक सिद्धान्त और कूटस्थ सिद्धान्तमे प्रात्मा भोक्ता नही है । उसका इससे निराकरण हो जाता है।
प्रश्न ४०-आत्मा सभी सदा ससारी तो रहते नही है, क्योकि प्रास्माके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान अनुष्ठानके द्वारा अनन्त भव्य जीव ससारसे मुक्त हो गये और आगे भी अनन्त भव्य मुक्त होते जावेंगे। फिर 'ससारी' विशेपण कसे घटित होगा?
उत्तर-प्रथम तो यह बात है कि यद्यपि अनत भव्य मुक्त हो चुके व होगे तथापि उनसे अनन्तानत गुणे जीव ससारी है व रहेगे । दूसरी बात यह है कि जो मुक्त हो चुके वे भी भूतनगमनयको अपेक्षा ससारी कहे जाते है ।
प्रश्न ४१- जीव किस नयसे ससारी है ?
उत्तर- इस विषयको प्ररूपणाके लिये व्यवहारनय, अशुद्धनिश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, परमशुद्धनिश्चयमय-इन चार नयोका आश्रय करना चाहिये ।
प्रश्न ४२- व्यवहारनयसे जीव कैसा ससारी है ?
उत्तर- कर्मनोकर्मवधनवश हुआ जीव मति, जाति, जीवसमास प्रादि व्यक्त पर्यायो वाला ससारी है।
प्रश्न ४३-अशुद्धनिश्चयनयसे जीव कैसे ससारी है ?
उसर-अशुद्धनिश्चयनयसे जीव दर्शन, ज्ञान, चरित्र आदि गुणोके विभावपरिणमन मे उलझा हुमा ससारी है।
प्रश्न ४४-शुद्धनिश्चयनयसे जीवकी क्या अवस्था है ? उत्तर--शुद्धनिश्चयनयसे जीव ससारसे रहित अपने स्वाभाविक पूर्ण विकासमे तन्मय प्रश्न ४५-परमशुद्धनिश्चयनयसे जीवकी क्या अवस्था है ?
उत्तर-यह नय अवस्थाको देखता ही नही, अतः इस नयकी दृष्टिमे न ससारी है, न मुक्त है, किन्तु सभी जीव एक चैतन्यस्वभावमय है।
प्रश्न ४६-'ससारस्थ' विशेषणसे अन्य किस प्राशयका निराकरण किया है ? उत्तर--जो सिद्धान्त यह प्राशय रखते है कि भात्मा अनादिसे मुक्त है अथवा अशुद्ध