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युगवीर-निवन्धावली
किया आता है । ऐसा साहित्य ही व्यक्ति और समाजका पथ-प्रदर्शन करता है और अपनी समस्याओका समाधान करनेमें उनका नहायक होता है । शायद यही कारण है कि पद्यको अपेक्षा गद्यका और गद्य-साहित्यको अन्य अनेक विधाओकी अपेक्षा उसकी निवन्ध' नामक विधाका ही आधुनिक कालमे सर्वाधिक विकास एव प्रसार हुआ है।
'निबध' शब्द 'वध' से बना हुआ है, जिसका अर्थ है 'वधा हुआ ।' अतएव, अपने में पूर्ण एक ऐसी वधी हुई, मुगठिन, सक्षिप्त गद्य-रचनाको 'निवन्ध' सजा दी जाती है जिनमे कि लेखक अपने निजके दृष्टिकोणते किमी विवेच्य-विषयका युक्तियुक्त, तर्कसंगत, विचारपूर्ण अथवा भावपूर्ण विवेचन करता है । जो निबध भावप्रधान या भावात्मक होते हैं उनमें लेखक अपने भावो अथवा अनुभूतियोकी कलात्कक अभिव्यक्ति करता है। जो निवध वस्तुपरक होते हैं उनमे वह अपने ज्ञान, अध्ययन, अनुभव और चिन्तनके वलपर अपने विचार व्यक्त करता है। इस प्रकारके निबन्धोमें युक्ति और तर्कके अतिरिक्त प्रमाणो और सन्दर्भोका भी यथावश्यक अवलम्बन लिया जाता है। वस्तुपरक निवन्धोमे वर्णनात्मक, परिचयात्मक, सस्मरणात्मक, आलोचनात्मक, शिक्षाप्रद, हास्य-व्यग्यात्मक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक तथा अन्य विविध ज्ञान-विज्ञानसे सवधित अनेक प्रकार होते हैं। निवन्ध जितना ही आत्मपरक ( सवजेक्टिव ) होगा वह उतना ही भावप्रधान होगा और जितना ही वह वस्तुपरक (ऑवजेक्टिव) होगा उतना ही वह युक्ति एव प्रमाणप्रधान होगा। भावप्रधान-रचना हृदयको प्रभावित करती है तो युक्तिप्रधान बुद्धिको प्रभावित करती है । रस-सिद्ध तो दोनो ही होनी चाहिये, उपयुक्त भापा, शैली, रचनाशिल्प या तकनीक भी दोनोंके ही लिये आवश्यक हैं। परन्तु प्रथम-कोटिके निवन्धोका फल जब प्रधानतया मनोरजन ही होता है तव दूसरी कोटिके निवन्धकोका फल ज्ञानवृद्धि होता है। वे पाठकके मस्तिष्कमे उपादेय विचारोका स्फुरण करते हैं, उसे अध्ययन, चिन्तन और शोधखोजके लिये प्रेरित करते हैं और उसे स्वयके जीवनको तथा अपने समाजको समुन्नत एव प्रगतिगामी बनानेके लिये प्रोत्साहन देते हैं। स्वतन्त्र विचारशक्ति, जो