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प्राक्कथन
मनुष्यकी सर्वाधिक मूल्यवान निधि है, उसकी प्रक्रिया ऐसे सत् - साहित्यके
पठन-मनन- द्वारा होती ही है ।
वर्तमान रूपमें
गद्य - साहित्यकी निवन्ध नाम्नी विधाका अपने प्राय सर्वप्रथम प्रारंभ १५ वी शती ई० में इटली में हुआ माना जाता है । १६ वी ७ वी शती मे वहाँसे इगलैड, फ्रान्स आदिमे उसका प्रवेश एव प्रचार हुआ ओर १९ वी गतीके अन्त तक अगेजी निवन्धशैली अपने विविध रूप में विकासको चरमावस्थाको प्राप्त हो गई । भारतवर्ष में १५ वी शती - के उत्तरार्धमे इम देशके वहुभागमें मग्रेजी शासनका प्रभार होने लगा था । फलस्वरूप १९ वी शती के प्रारभसे ही पाश्चात्य सस्कृतिके प्रभावसे यहाँ नवजागृतिको एक लहर चल पडी, जिसने १८५७ के स्वातन्त्र्य समरके उपरान्त, प्राय पूरे देश पर अपेक्षाकृत शान्तिपूर्ण शासन एवं सुरक्षाका सुयोग पाकर, अपूर्व वेग पकडा । रेल, डाक, तार और छापेखानेकी स्थापनाने देशके विभिन्न भागोको एक दूसरेके निकट सम्पर्क में ला दिया और धर्मसुधार, समाजसुधार, समाजसगठन, राजनीतिक सुधार, राष्ट्रीय- जागरण, शिक्षाप्रचार आदिके विविध आन्दोलन यत्र तत्र चल पडे । अनेक स्थानीय, प्रान्तीय, सार्वदेशिक, जातीय, साम्प्रदायिक, आदि सस्याओकी स्थापना होने लगी । अग्रेजी ही नही, देशी भाषाओमे भी अनेक समाचार पत्रपत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी, मुख्यतया जिनके माध्यमसे और अग्रेजीके प्रभाव एव अनुकरणसे सभवतया पहिले वगलामें और फिर हिन्दी आदि अन्य स्वदेशमापासमें निवन्ध - शैलीका अद्भुत विकास हुआ ।
१९ वी शतीके उत्तरार्धकी इस समस्त जागृति और नवचेतनाके प्रभावसे जैनजगत भी अछूता नही रह सकता था । थोडा देर से ही सही उसने भी अपनी क्षमताओ एव आवश्यकताओंके अनुसार प्राय उन सभी प्रवृत्तियोको अपनाया जिनसे देशका जैनेतर समाज आन्दोलित हो रहा था और इन समस्त आन्दोलनोमें प्रचारका सबसे वडा साधन विभिन्न पत्रपत्रिकाओमें नेताओ, सुधारको, विद्वानो एव विचारको द्वारा लिखे जानेवाले लेख - निबधादि ही सिद्ध हुए। जैन समाजके इन प्रारंभिक लेखकोमे, विशेषकर दिगम्बर सम्प्रदायके हिन्दी लेखकोमें, प० गोपालदास वरैया,