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प्राक्कथन
साहित्य जीवनका और समाजका प्रतिविम्व होता है । एक प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति जव वैविध्य एव वैचित्र्यपूर्ण वाह्यजगतका सजग अवलोकन करता है तो उसके मानसपटल पर उसकी प्रकृति, रुचि, अभिज्ञता और परिस्थितियोके अनुसार वाह्य वस्तुस्थितिको छाप पडती है, जिसे आत्मसात् करके वह विचारपूर्वक भाषाद्वारसे अभिव्यक्त करता है-लेखबद्ध कर देता है । यही साहित्य है और यह सभ्यमानवकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, उसकी सर्वश्रेष्ठ - कला है । साहित्यिक कृति जितना ही अधिक रमपूर्ण, भावपूर्ण विचारोत्तेजक, युक्तियुक्त, वुद्धिगम्य, अनुभूत और प्रामाणिक होती है उतना ही अधिक वह क्षेत्र कालव्यापी होनेमे, मानव समाजका मनोरजन एवं उसकी ज्ञानवृद्धि करनेमें, तथा उसका उचित दिशादर्शन करके उसका अपना जीवन प्रगतिशील एवं उन्नत बनानेमे समर्थ होती है | कुछ साहित्यकार 'कला, कलाके लिये' का नारा लगाते हैं, किन्तु अन्य अनेक कलाका सोद्देश्य होना मान्य करते हैं । निरर्थक, निरुद्देश्य कलाको वे उपादेय नही मानते । वह लेखक और पाठकका भी अस्थायी मनोरजन भले ही करले किन्तु व्यक्ति या समाजका कोई ठोस हित सम्पादन नही करती । इसके अतिरिक्त, शुद्ध कलात्मक अथवा सृजनात्मक साहित्य, यथा -- काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी आदिके क्षेत्रमे कल्पना - शक्ति एव भावप्रवणताके वलपर कलात्मकताका प्रदर्शन चाहे जितना भी किया जा सकता है किन्तु विविध ज्ञान-विज्ञानसे सम्बन्धित तथा मनुष्य जीवनके सास्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि अनगिनत क्षेत्रोको स्पर्श करनेवाले वस्तुपरक साहित्यमे तथाकथित कलात्मकताका प्रदर्शन सीमित रूप में ही किया जा सकता है । ऐमा समस्त साहित्य सोद्देश्य ही होता है और विश्वके प्राय समस्त देशोके अर्वाचीन ही नहीं प्राचीन साहित्य में भी इसी प्रकारके साहित्यकी बहुलता है । उसीके आधार पर देश, जाति या युग- विशेषकी सभ्यता, संस्कृति एव प्रगति शीलताका मूल्याङ्कन