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मासमक्षण, विचित्र हेतु
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है और न उसको कुछ दुख पहुँचता है। इसलिये उसके खाने में कोई हर्ज ओर दोप नहीं है।' इस रोतिसे वे बहुतसे भोले मनुष्योको बहकाने लगे।
एक दिन महाशयजीकी भेंट अनेकान्तसिंहके भाई तुरतबुद्ध मे हुई । आपने उनको भी बहकाना चाहा और अपना वही मनगढत श्लोक सुनाया, परन्तु वे प्रथम तो अनेकान्तसिंहके भाई और दूसरे स्वय तुरतबुद्धि थे, महाशयजीकी बातोमें कव आनेवाले थे। उन्होने तुरन्त महाशयजीके श्लोकके उत्तरमै तुर्कीब-तुर्की यह श्लोक कहा
गूथस्य मरणं नास्ति, नास्ति गूथस्य वेदना । वेदनामरणाभावात् , को दोषो गूथ-भक्षणे ॥
अर्थात्-विष्ठाका मरण नहीं होता है और न विष्ठाको कोई तकलीफ होती है। जब मरण और तकलीफ दोनो नहीं होते हैं तो फिर विष्ठाके भक्षणमे क्या दोष है ? भावार्थ-जब आप मास-भक्षणको वेदना और मरणके न होनेसे ही निर्दोष ठहराते हैं तो फिर आप विष्ठा-भक्षण करनेसे कैसे इनकार कर सकते हैं और कैसे उसको सदोष कह सकते हैं ? जिस हेतुसे आप मास-भक्षणको निर्दोष सिद्ध करते हैं आपके उसी हेतुसे विष्ठा-भक्षण भी, जिसको आप सदोष मान रहे हैं, निर्दोष सिद्ध हुआ जाता है, क्योकि दोनो स्थानोपर हेतु समान है और जिस हेतुसे आप विष्ठा-भक्षणको सदोप मानते हैं उसी हेतुसे मामभक्षणके सदोष माननेमे आपको कौन बाधक हो सकता है ? एकको सदोष और दूसरेको निर्दोप मानने से आपका हेतु ( वेदना मरणाभावात् ) व्यभिचारी ठहरता है और उससे कदापि साध्यकी सिद्धि नही हो सकती।