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युगवीर निवन्धावली
तुरतबुद्धिके इस श्लोक और व्याख्याको सुनकर महाशयजीकी आँखे खुल गई, वे अपना-सा मुँह लेकर रह गये और सब आवली-बावली भूल गये-उनसे कुछ भी उत्तर न बन सका और उनको इतना खिसियाना और शर्मिन्दा होना पडा कि उन्होंने तुरतवुद्धिजीसे माफी मागी और अपना कान मरोडा कि मैं भविष्यमे किसीको भी मास-भक्षणकी प्रेरणा नहीं करूंगा, न स्वय मासके निकट जाऊंगा और न कभी अपने उस मनगढत श्लोकका उच्चारण करूँगा' ।
१. जैन गजट ८-८-१६०७