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मांसभक्षणमें विचित्र हेतु
एक महाशय मासके बहुत ही प्रेमी थे। दैवयोगसे आपने कहीसे कुछ थोडा-सा न्याय पढ लिया। अव क्या था, लगा महाशयजीको खब्त सूझने । और खन्त होते-होते वे इस उधेड बुनमे पड गये कि किसी प्रकार न्यायकी शैलीसे मासभक्षणको 'निर्दोष सिद्ध करना चाहिये। इसके लिये आप हेतु ढूँढने लगे, समस्त ग्रन्थ और शास्त्र टटोल मारे, परन्तु कही हेतु हो तो मिले। तब लाचार आपको यह लटक उठी कि अपने आपही कोई नवीन हेतु गढना चाहिये। आखिर वहुत कुछ दिमाग खपाते-खपाते आपने एक हेतु गढ ही डाला और उसको श्लोकके ढाँचेमे इस प्रकार ढाल दिया -
मांसस्य मरणं नास्ति, नास्ति मांसस्य वेदना । वेदनामरणाभावात् , को दोपो मासभक्षणे ।। इस श्लोकको गढकर महाशयजो बहुत ही प्रसन्न हुए और आपेसे इतने बाहर हो गये कि अपनी प्रशसा और दूसरोकी निन्दामे जमीन-आसमान एक करने लगे। उनको जो कोई मिलता वे उसीको मास-भक्षणकी प्रेरणा करते और मास-भक्षणको निर्दोष सिद्ध करनेकेलिये उपर्युक्त श्लोकका प्रमाण देकर उसका अर्थ और भावार्थ इस प्रकार समझा देते कि-मासका मरण नही होता है और न मासको कोई तकलीफ होती है । जब मरण और तकलीफ दोनो नही होते हैं तो फिर मासभक्षणमे क्या दोष है ? पाप उस वक्त लगता है कि जब किसीको मारा जावे या दु ख दिया जावे, परन्तु मास न मरता