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एक ही अमोघ उपाय दौर्बल्य मिटे और वे प० दरवारीलालजीकी उक्त लेखमाला तथा पुस्तकादिका सयुक्तिक उत्तर देनेमे प्रवृत्त हो सके तो यह अब भी हो सकता है। अभी रोग सीमासे बाहर नही हुआ-असाध्य दशाको नही पहुँचा-उसकी चिकित्सा हो सकती है। परन्तु इसके लिये दृढताके साथ एक कठोर प्रयोग करना होगा, जो कि रोगकी प्रकृति और स्थितिको देखते हुए उसका एक ही अमोघ ( अचूक ) उपाय है और वह इस प्रकार है -
ऊँचे दर्जेकी धार्मिक शिक्षाके जितने भी विद्यालय अथवा शिक्षालय जैनसमाजमे मौजूद हैं वे सब छह महीनेके लिये एकदम वन्दकर दिये जायें और उनके पदवीधर अध्यापकोको यह ऑर्डर (मादेश) दिया जाय कि वे इस अर्सेके अन्दर प० दरबारीलालजीके उक्त लेखोका अच्छा युक्ति--पुरस्सर उत्तर तैयार करें-चाहे वे अपना अलग उत्तर लिखें या दो चार पडित अपनी सुविधाके अनुसार मिलकर एक सयुक्त उत्तर तैयार करें, यह उनकी इच्छा पर निर्भर है और यह भी उनकी इच्छापर निर्भर है कि वे उत्तर अपने-अपने विद्यालयमे ही बैठकर लिखें अथवा यथावश्यकता किसी दूसरे ऐसे स्थानपर भी ठहरकर लिखनेका यत्न करें जहाँ लायब्रेरी आदिकी सुविधा हो। साथ ही, उनपर यह स्पष्ट कर दिया जाय कि यदि उनका उत्तर यथेष्ट रूपमे ठीक होगा तो उन्हे छह महीनेका पूरा वेतन मिलेगाप्रतियोगितामे उनका लेख उत्तम रहनेपर विशेष पारितोपिक भी मिल सकेगा-और विद्यालयोमे उनकी नियुक्ति बदस्तूर रहेगी
और यदि वे उत्तर नही लिखेंगे अथवा उनका उत्तर ठीक नही होगा तो उन्हे न तो छह महीनेका वेतन मिलेगा और न वे आगेको विद्यालयमे अपने पदपर नियुक्त ही रह सकेंगे, क्योकि ऐसे पडितोसे शिक्षा दिलानेका कोई नतीजा नही है जो खुद उन