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युगवीर-निबन्धावली सिद्धान्तोका बचाव एव सरक्षण न कर सकते हो जिन्हे वे पढाने हैं-ऐमे अशक्त अध्यापकोसे शिक्षा दिलाना समाजके पैसे और बच्चोके समयका दुरुपयोग करना है।
यह उपाय निष्फल जाने वाला नहीं है, इसीसे उसको "अमोघ" कहा गया है। इसका दृढता और एकनिष्ठाके साथ प्रयोग होनेपर इन पडितोकी आँखे स्वय खुल जायेंगी, इनके कानोमे लगी हुई डाटें खुद-ब-खुद निकल पडेंगी, इन्हे जैनसिद्धान्तोपर तथा अपने ऊपर होने वाले प्रहार स्पष्ट दिखाई देने लगेगे और समाजके दुखित हृदयोकी पुकारें साफ सुन पडेंगी। साथ ही आत्मग्लानि भी इन्हे बेचैन किये बिना नही रहेगी । अपने स्वार्थमे धक्का पहुंचने एव पोजीशनके गिरनेकी तीव्र आशङ्कासे इनकी सोई हुई चेतना जाग उठेगी, चोट खाई हुई नागनकी तरह इनकी प्रतिभा चमक उठेगी और ये अपनी उन शक्तियोसे पूरा काम लेने लगेगे जो आजकल बेकार पड़ी हुई हैं। इन्हे यह कहनेका भी फिर कोई अवसर नही रहेगा कि हमारे पास अवकाश नही है अथवा पढाते-पढाते हमारे दिमाग ( मस्तिष्क ) थक जाते है, दूसरा काम फिर कैसे करें ? परिणामस्वरूप प० दरबारीलालजीके लेखोके अनेक अच्छे-अच्छे उत्तर तैयार हो जायेंगे और आश्चर्य नहीं जो उनसे प०दरबारीलालजीका समाधान होकर उनका रुख बदल जाय-उन्हे अपनी भूल मालूम पड जाय और वे फिरसे सन्मार्गपर आजाये, क्योकि वे सत्यभक्त है, सत्यके सामने सिर झुका देनेका उनका दावा है और इसलिये निरावरण सत्य के सामने आते ही उसे ग्रहण करनेमे उन्हे सकोच नही होगा-मानापमानका कोई खयाल उसमे बाधा नही डाल सकेगा। ऐसे ही लोगोके सन्मार्गपर आनेकी पूर्ण आश्वासनमयी सूचना हमे स्वामी समन्तभद्रके निस्त