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उसे हमारी प्रतिष्ठा एवं ज्ञान
रवैया अख्तियार कर बनती नही, किन्तु बिगडती है और मान-मर्यादा दिनपर दिन लोगो के हृदयमें अब वह पहले जैसा
भग होती चली जा रही है गांव हमारा नहीं है ॥
ये लोग बिना पानी पैर उखोये ही तैराक बनना चाहते हैं-लिसनेका अम्यान न करके ही सुलेखन बननेत्री धुन गरन है-और बिना क्षेत्र कदम बढाये ही मान वास्त्र (यानी ) को रट लेनेने ही योद्धा बनना और वीर योदओके टाइटिल धारण करना चाहते हैं । यह सब भी उनके उसी मानक दीवंत्यका परिणाम है। जब तक इनका यह विकार दूर नही होगा तब तक उस विपयमे इनसे केवल अनुनय-विनय करने, प्रार्थना करने अथवा उनके सामने कर्तव्यकी पुकार मचाने मात्रने, प्रकृत विपयमे, कुछ भी होने जानेवाला नही है ।
इन परितोके उक्त मानसिक दौर्बल्य के पोषणमे समाजका भी कुछ हाथ है। उसने उनकी पूजा -- प्रतिष्ठा तो वेहद की, परन्तु इनमे जैनसिद्धान्तो अथवा जैनधर्मको रक्षा और उसके प्रचारका वह काम नही लिया जो लेना चाहिये था और न कभी इनके कार्योकी आलोचना अथवा प्रवृत्तियोकी टीका-टिप्पणी ही की — इन्हे एक प्रकारमे पूजाकी वस्तु ही बनाये रक्खा और प्राय निरङ्कुश छोड दिया ! यदि कोई काम लिया भी तो वह गन्योके रटानेका, उन्हे बांच देनेका, साधारण अनुवाद कर देनेका, कुछ व्याख्यान झाड देनेका और ज्यादासे ज्यादा अर्थहोन रुढियोके पालनमे सहायता पहुँचानेका || समाजकी ऐसी प्रवृत्तिसे उक्त दौर्बल्यको अच्छा पोषण मिला है ।
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यदि समाज हृदयसे चाहे कि उसके इन पडितोका यह
युगवीर निवा