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युगवीर-निवन्धावली इससे उक्त पद्यके तृतीय चरणमे 'विनयेन्दु' के शिष्यरूपसे त्रैलोक्यकीर्ति नामक मुनिका जो उल्लेख पाया जाता है उसका समर्थन होता है। साथ ही, यह जाना जाता है कि चतुर्थ चरणमें 'तच्छिप्य ' पदके द्वारा गुणभूपणने अपनेको इन्ही 'त्रैलोक्यकीर्ति' मुनिका शिष्य सूचित किया है और इसलिए 'लोक्यकोति' गुणभूपणका विशेपण नहीं है, बल्कि यह उनके गुरुका नाम है, जिसका स्मरण उन्होने प्रकारान्तरसे ग्रन्थके मगलाचरणमे भी 'प्रणम्य निजगत्कीति' इत्यादिरूपसे किया है।
(३) प० वामदेव लोक्यकीर्तिके प्रशिष्य थे। उनका बनाया हुआ त्रैलोक्यदीपक नामका भी एक ग्रन्थ है, जिसमे त्रैलोक्यकीति मुनिकी प्रशसाके कई पद्य दिये है, और यह ग्रन्थ उन्ही 'प्राग्वाटवशी' नेमिदेवकी प्रार्थनापर लिखा गया तथा उन्हीके नामाकित किया गया जिनकी प्रार्थनापर गुणभूपणका उक्त श्रावकाचार लिखा गया और नामाकित किया गया है। नेमिदेवके वशका वर्णन करनेवाले और उसकी प्रशसा तथा आशीर्वादको लिये हुए वे तीनो पद्य भी इसमे ज्योके त्यो उद्धृत पाये जाते हैं जो श्रावकाचारमे 'अस्त्यत्रवंश' से प्रारम्भ होकर 'नेमिश्चिर नन्दतु' पर समाप्त होते हैं । इससे वामदेवका गुणभूषणके साथ सम्बन्ध स्थापित होता है और यह स्पष्ट हो जाता है कि प० वामदेवने अपने भावसग्रह आदि ग्रन्थोमे जिन 'विनयेन्दु' और 'लोक्यकीर्ति' नामक मुनियोका उल्लेख किया है उन्हीका उल्लेख गुणभूषणने भी अपने श्रावकाचारमे किया है। दोनो उल्लेख इस विषयमे समान है, और इसलिये गुणभूषणको सागरचन्दका शिष्य लिखना और त्रैलोक्यकीर्ति' नामके सज्ञापदको भी गुणभूपणका विशेषण बना देना कोई अर्थ नही रखता।
इस सब कथनसे पाठक सहजमे ही यह अनुभव कर सकते