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चिन्ताका विषय अनुवाद
६१३ है कि उक्त अनुवाद कितना बे-सोचे-समझे किया गया है, किस कदर बेढगा है और उसमे कितनी अधिक ऐतिहासिक विपरीतता पाई जाती है, जो पाठकोको गुमराह करती है। अनुवादकजी, 'लेखकके दो शब्द' नामकी भूमिकामे, अपने अनुवादको एक स्वतत्र अनुवादकी सज्ञा देते हैं, परन्तु यह अच्छी स्वतत्रता हुई जिसके द्वारा एक आचार्यके गुरु और दादागुरु दोनोका ही नाम लुप्तकर दिया गया और उन्हे उनके गुरुके भी दादागुरुका शिष्य बनाकर उन्हीके समकालीन ठहरा दिया गया ।
जब एक बहुत ही सुगम पद्यके अनुवादकी ऐसी हालतमे और उसमे अधिकता, हीनता, विपरीतार्थता आदिके सभी दोष पाये जाते हैं तब दूसरे पद्योके अनुवादका क्या हाल होगा, इसे पाठक स्वय सोच सकते हैं। खेद है मेरे पास इतना समय नही कि मैं सारे अनुवादकी जॉच' प्रकट करूँ-सारा अनुवाद बहुत कुछ त्रुटियो तथा दोषोसे परिपूर्ण है और उसपर एक बडा पोथा लिखा जा सकता है, मैने केवल एक नमूना प्रस्तुत किया है, उसपरसे शेष पथके अनुवादको, और इसी तरह दूसरे ग्रन्योके अनुवादोको भी जाँचने-ऊंचानेकी ओर विद्वानो तथा दूसरे समाजहितैषियोका ध्यान जाना चाहिये । अनुवादकोकी ऐसी निरकुशप्रवृत्ति और लापर्वाही अवश्य ही नियत्रण किये जानेके योग्य है। समाजको इस ओर शीघ्र ध्यान देना चाहिये। अन्यथा, यह रोग दिनपर दिन और बढता जायगा। उसकी वृद्धिसे समाजका ज्ञान विकृत हो जायगा, अथवा वह विकृत ही उत्पन्न होगा, और आगेको वस्तुस्थितियोको समझनेमे बडी-बडी दिक्कतें पेश आएंगी।
समाजकी वर्तमान अव्यवस्था, दुरवस्था और असगठित स्थितिको देखते हुए, यद्यपि, उससे अभी यह आशा नही की जा